रामचरित मानस खंड-4: जब शिवधनुष टूटने से कुपित हो गए परशुराम, लक्ष्मण से हुई जबरदस्त बहस!

इस श्रृंखला 'रामचरित मानस' में आप पढ़ेंगे भगवान राम के जन्म से लेकर लंका पर विजय तक की पूरी कहानी. आज पेश है इसका चौथा खंड...

शिवधनुष तोड़ने पर ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध और मुनीश्वर लोग प्रभु श्रीराम की प्रशंसा कर रहे हैं और आशीर्वाद दे रहे हैं. वे रंग-बिरंगे फूल और मालाएं बरसा रहे हैं. किन्नर लोग रसीले गीत गा रहे हैं. सारे ब्रह्मांड में जय-जयकार की ध्वनि छा गई, जिसमें धनुष टूटने की ध्वनि जान ही नहीं पड़ती. जहां-तहां स्त्री-पुरुष प्रसन्न होकर कह रहे हैं कि श्रीरामचन्द्रजी ने शिवजी

के भारी धनुष को तोड़ डाला. धीर बुद्धिवाले, भाट, मागध और सूतलोग विरुदावली (कीर्ति) का बखान कर रहे हैं. सब लोग घोड़े, हाथी, धन, मणि और वस्त्र निछावर कर रहे हैं. झांझ, मृदंग, शंख, शहनाई, भेरी, ढोल और सुहावने नगाड़े आदि बहुत प्रकार के सुंदर बाजे बज रहे हैं. जहां-तहां युवतियां मंगलगीत गा रही हैं. सखियों सहित रानी अत्यन्त हर्षित हुई. मानो सूखते हुए धान पर पानी पड़ गया हो. जनकजी ने सोच त्यागकर सुख प्राप्त किया. मानो तैरते-तैरते थके हुए पुरुष ने थाह पा ली हो. धनुष टूट जाने पर राजा लोग ऐसे श्रीहीन (निस्तेज) हो गए, जैसे दिन में दीपक की शोभा जाती रहती है. सीताजी का सुख किस प्रकार वर्णन किया जाय; जैसे चातकी स्वाती का जल पा गई हो. श्रीरामजी को लक्ष्मणजी किस प्रकार देख रहे हैं, जैसे चन्द्रमा को चकोर का बच्चा देख रहा हो. तब शतानन्दजी ने आज्ञा दी और सीताजी ने श्रीरामजी के पास गमन किया.

साथ में सुंदर चतुर सखियां मंगलाचार के गीत गा रही हैं. सीताजी बालहंसिनी की चाल से चलीं. उनके अंगों में अपार शोभा है. सखियों के बीच में सीताजी ऐसी शोभित हो रही हैं, जैसे बहुत-सी छवियों के बीच में महाछवि हो. करकमल में सुंदर जयमाला है, जिसमें विश्वविजय की शोभा छायी हुई है. सीताजी के शरीर में संकोच है, पर मन में परम उत्साह है. उनका यह गुप्त प्रेम किसी को जान नहीं पड़ रहा है. समीप जाकर, श्रीरामजी की शोभा देखकर राजकुमारी सीताजी चित्र में लिखी-सी रह गईं. चतुर सखी ने यह दशा देखकर समझाकर कहा- सुहावनी जयमाला पहनाओ. यह सुनकर सीताजी ने दोनों हाथों से माला उठायी, पर प्रेम के विवश होने से पहनायी नहीं जाती. उस समय उनके हाथ ऐसे सुशोभित हो रहे हैं. मानो डंडियों सहित दो कमल चन्द्रमा को डरते हुए जयमाला दे रहे हों. इस छवि को देखकर सखियां गाने लगीं. तब सीताजी ने श्रीरामजी के गले में जयमाला पहना दी. श्रीरघुनाथजी के हृदय पर जयमाला देखकर देवता फूल बरसाने लगे. समस्त राजागण इस प्रकार सकुचा गए मानो सूर्य को देखकर कुमुदों का समूह सिकुड़ गया हो. नगर और आकाश में बाजे बजने लगे. दुष्ट लोग उदास हो गए और सज्जन लोग सब प्रसन्न हो गए. देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग और मुनीश्वर जय-जयकार करके आशीर्वाद दे रहे हैं.

देवताओं की स्त्रियां नाचती-गाती हैं. बार-बार हाथों से पुष्पों की उंगलियां छूट रही हैं. जहां-तहां ब्राह्मण वेदध्वनि कर रहे हैं और भाटलोग विरुदावली (कुलकीर्ति) बखान रहे हैं. पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग तीनों लोकों में यश फैल गया कि श्रीरामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ दिया और सीताजी को वरण कर लिया. नगर के नर-नारी आरती कर रहे हैं और अपनी पूंजी (हैसियत) को भुलाकर (सामर्थ्य से बहुत अधिक) निछावर कर रहे हैं. श्रीसीता-रामजी की जोड़ी ऐसी सुशोभित हो रही है मानो सुंदरता और श्रृंगार रस एकत्र हो गए हों. सखियां कह रही हैं- सीते! स्वामी के चरण छुओ; किन्तु सीताजी अत्यन्त भयभीत हुई उनके चरण नहीं छूतीं. गौतमजी की स्त्री अहल्या की गति का स्मरण करके सीताजी श्रीरामजी के चरणों को हाथों से स्पर्श नहीं कर रही हैं. सीताजी की अलौकिक प्रीति जानकर रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्रजी मन में हंसे. उस समय सीताजी को देखकर कुछ राजा लोग ललचा उठे. वे दुष्ट, कुपूत और मूढ़ राजा मन में बहुत तमतमाये. वे अभागे उठ-उठकर, कवच पहनकर, जहां-तहां गाल बजाने लगे. कोई कहते हैं, सीता को छीन लो और दोनों राजकुमारों को पकड़कर बांध लो. धनुष तोड़ने से ही चाह नहीं सरेगी (पूरी होगी) . हमारे जीते- जी राजकुमारी को कौन ब्याह सकता है? यदि जनक कुछ सहायता करें, तो युद्ध में दोनों भाइयों सहित उसे भी जीत लो. ये वचन सुनकर साधु राजा बोले- इस [निर्लज्ज] राज समाज को देखकर तो लाज भी लजा गई.

अरे! तुम्हारा बल, प्रताप, वीरता, बड़ाई और नाक (प्रतिष्ठा) तो धनुष के साथ ही चली गई. वही वीरता थी कि अब कहीं से मिली है? ऐसी दुष्ट बुद्धि है, तभी तो विधाता ने तुम्हारे मुखों पर कालिख लगा दी. ईर्ष्या, घमंड और क्रोध छोड़कर नेत्र भरकर श्रीरामजी की छवि को देख लो. लक्ष्मण के क्रोध को प्रबल अग्नि जानकर उसमें पतंगे मत बनो. जैसे गरुड़ का भाग कौआ चाहे, सिंह का भाग खरगोश चाहे, बिना कारण ही क्रोध करने वाला अपनी कुशल चाहे, शिवजी से विरोध करने वाला सब प्रकार की सम्पत्ति चाहे. लोभी-लालची सुंदर कीर्ति चाहे, कामी मनुष्य निष्कलंकता चाहे तो क्या पा सकता है? और जैसे श्रीहरि के चरणों से विमुख मनुष्य परमगति (मोक्ष) चाहे, हे राजाओ! सीता के लिए तुम्हारा लालच भी वैसा ही व्यर्थ है. कोलाहल सुनकर सीताजी शंकित हो गईं. तब सखियां उन्हें वहां ले गईं जहां रानी (सीताजी की माता) थीं. श्रीरामचन्द्रजी मन में सीताजी के प्रेम का बखान करते हुए स्वाभाविक चाल से गुरुजी के पास चले. रानियों सहित सीताजी [दुष्ट राजाओं के दुर्वचन सुनकर] सोच के वश हैं कि न जाने विधाता अब क्या करने वाले हैं. राजाओं के वचन सुनकर लक्ष्मणजी इधर उधर ताकते हैं. किंतु श्रीरामचन्द्रजी के डर से कुछ बोल नहीं सकते. उनके नेत्र लाल और भौंहें टेढ़ी हो गईं और वे क्रोध से राजाओं की ओर देखने लगे. मानो मतवाले हाथियों का झुंड देखकर सिंह के बच्चे को जोश आ गया हो.

खलबली देखकर जनकपुर की स्त्रियां व्याकुल हो गईं और सब मिलकर राजाओं को गालियां देने लगीं. उसी मौके पर शिवजी के धनुष का टूटना सुनकर भृगुकुल रूपी कमल के सूर्य परशुरामजी आए. इन्हें देखकर सब राजा सकुचा गए. मानो बाज के झपटने पर बटेर लुक (छिप) गए हों. गोरे शरीर पर विभूति (भस्म) बड़ी फब रही है और विशाल ललाट पर त्रिपुंड विशेष शोभा दे रहा है. सिर पर जटा है, सुंदर मुखचन्द्र क्रोध के कारण कुछ लाल हो आया है. भौंहें टेढ़ी और आंखें क्रोध से लाल हैं. सहज ही देखते हैं, तो भी ऐसा जान पड़ता है मानो क्रोध कर रहे हैं. बैल के समान (ऊंचे और पुष्ट) कंधे हैं. छाती और भुजाएं विशाल हैं. सुंदर यज्ञोपवीत धारण किए, माला पहने और मृगचर्म लिए हैं. कमर में मुनियों का वस्त्र (वल्कल) और दो तरकस बांधे हैं. हाथ में धनुष-बाण और सुंदर कंधे पर फरसा धारण किए हैं. शांत वेष है, परंतु करनी बहुत कठोर है. स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता. मानो वीर रस ही मुनिका शरीर धारण करके, जहां सब राजा लोग हैं वहां आ गया हो. परशुरामजी का भयानक वेष देखकर सब राजा भय से व्याकुल हो उठ खड़े हुए और पिता सहित अपना नाम कह कहकर सब दंडवत-प्रणाम करने लगे. परशुरामजी हित समझकर भी सहज ही जिसकी ओर देख लेते हैं, वह समझता है मानो मेरी आयु पूरी हो गई. फिर जनकजी ने आकर सिर नवाया और सीताजी को बुलाकर प्रणाम कराया.



परशुरामजी ने सीताजी को आशीर्वाद दिया. सखियां हर्षित हुईं और [वहां अब अधिक देर ठहरना ठीक न समझकर] वे सयानी सखियां उनको अपनी मंडली में ले गईं. फिर विश्वामित्रजी आकर मिले और उन्होंने दोनों भाइयों को उनके चरणकमलों पर गिराया. विश्वामित्रजी ने कहा- ये राम और लक्ष्मण राजा दशरथ के पुत्र हैं. उनकी सुंदर जोड़ी देखकर परशुरामजी ने आशीर्वाद दिया. कामदेव के भी मद को छुड़ाने वाले श्रीरामचन्द्रजी के अपार रूप को देखकर

उनके नेत्र थकित (स्तम्भित) हो रहे. फिर सब देखकर, जानते हुए भी अनजान की तरह जनकजी से पूछते हैं कि कहो, यह बड़ी भारी भीड़ कैसी है? उनके शरीर में क्रोध छा गया. जिस कारण सब राजा आए थे, राजा जनक ने वे सब समाचार कह सुनाए. जनक के वचन सुनकर परशुरामजी ने फिरकर दूसरी ओर देखा तो धनुष के टुकड़े पृथ्वी पर पड़े हुए दिखायी दिए. अत्यन्त क्रोध में भरकर वे कठोर वचन बोले- रे मूर्ख जनक! बता, धनुष किसने तोड़ा? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो अरे मूढ़! आज मैं जहां तक तेरा राज्य है, वहां तक की पृथ्वी उलट दूंगा. राजा को अत्यंत डर लगा, जिसके कारण वे उत्तर नहीं देते. यह देखकर कुटिल राजा मन में बड़े प्रसन्न हुए. देवता, मुनि, नाग और नगर के स्त्री-पुरुष सभी सोच करने लगे. सीताजी की माता मन में पछता रही हैं कि हाय! विधाता ने अब बनी बनाई बात बिगाड़ दी. परशुरामजी का स्वभाव सुनकर सीताजी को आधा क्षण भी कल्प के समान बीतने लगा.

तब श्रीरामचन्द्रजी सब लोगों को भयभीत देखकर और सीताजी को डरी हुई जानकर बोले- उनके हृदय में न कुछ हर्ष था, न विषाद. हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोड़ने वाला आपका कोई एक दास ही होगा. क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर क्रोधी मुनि रिसाकर बोले- सेवक वह है जो सेवा का काम करे. शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिए. हे राम! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है. वह इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएंगे. मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुसकराए और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले- हे गोसाईं! लड़कपन में हमने बहुत-सी धनुहियां तोड़ डालीं. किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया. इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजास्वरूप परशुरामजी कुपित होकर कहने लगे- अरे राजपुत्र! काल के वश होने से तुझे बोलने में कुछ भी होश नहीं है. सारे संसार में विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुही के समान है?

लक्ष्मणजी ने हंसकर कहा- हे देव! सुनिये, हमारे जान में तो सभी धनुष एक-से ही हैं. पुराने धनुष के तोड़ने में क्या हानि-लाभ! श्रीरामचन्द्रजी ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था.फिर यह तो छूते ही टूट गया, इस में रघुनाथजी का भी कोई दोष नहीं है. मुनि! आप बिना ही कारण किस लिए क्रोध करते हैं? परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले- अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना. मैं तुझे बालक जानकर नहीं मारता हूं. अरे मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही जानता है? मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूं. क्षत्रियकुल का शत्रु तो विश्वभर में विख्यात हूं. अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला. हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को देख! अरे राजा के बालक! तू अपने माता-पिता को सोच के वश न कर. मेरा फरसा बड़ा भयानक है, यह गर्भों के बच्चों का भी नाश करने वाला है.

लक्ष्मणजी हंसकर कोमल वाणी से बोले- अहो, मुनीश्वर तो अपने को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं. बार-बार मुझे कुल्हाड़ी दिखाते हैं. फूंक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं. यहां कोई कुम्हड़े की बतिया (छोटा कच्चा फल) नहीं है, जो तर्जनी (सबसे आगे की) उंगली को देखते ही मर जाती हैं. कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मैंने कुछ अभिमान सहित कहा था. भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवीत देखकर तो जो कुछ आप कहते हैं, उसे मैं क्रोध को रोककर सह लेता हूं. देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गौ-इनपर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती. क्योंकि इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपकीर्ति होती है. इसलिए आप मारें तो भी आपके पैर ही पड़ना चाहिए. आपका एक-एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान है. धनुष-बाण और कुठार तो आप व्यर्थ ही धारण करते हैं. इन्हें (धनुष-बाण और कुठार को) देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो, तो उसे हे धीर महामुनि! क्षमा कीजिए.

यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी क्रोध के साथ गम्भीर वाणी बोले- हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है, काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है. यह सूर्यवंशरूपी पूर्णचन्द्र का कलंक है. यह बिलकुल उद्दंड, मूर्ख और निडर है. अभी क्षणभर में यह काल का ग्रास हो जाएगा. मैं पुकार कर कहे देता हूं, फिर मुझे दोष नहीं है. यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर इसे मना कर दो. लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है? आपने अपने ही मुंह से अपनी करनी अनेकों बार बहुत प्रकार से वर्णन की है. इतने पर भी सन्तोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिए. क्रोध रोककर असह्य दुख मत सहिये. आप वीरता का व्रत धारण करने वाले, धैर्यवान और क्षोभरहित हैं. गाली देते शोभा नहीं पाते. शूरवीर तो युद्ध में करनी (शूरवीरता का कार्य) करते हैं, कहकर अपने को नहीं जनाते. शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर ही अपने प्रताप की डींग मारा करते हैं.


आप तो मानो काल को हांक लगाकर बार-बार उसे मेरे लिए बुलाते हैं. लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनते ही परशुरामजी ने अपने भयानक फरसे को सुधारकर हाथ में ले लिया और बोले- अब लोग मुझे दोष न दें. यह कडुआ बोलने वाला बालक मारे जाने के ही योग्य है. इसे बालक देखकर मैंने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है. विश्वामित्रजी ने कहा- अपराध क्षमा कीजिये. बालकों के दोष और गुण को साधु लोग नहीं गिनते. परशुरामजी बोले- तीखी धार का कुठार, मैं दयारहित और क्रोधी और यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने- उत्तर दे रहा है. इतने पर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूं, सो हे विश्वामित्र! केवल तुम्हारे शील (प्रेम) से. नहीं तो इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े ही परिश्रम से गुरु से उऋण हो जाता. विश्वामित्रजी ने हृदय में हंसकर कहा- मुनि को हरा-ही-हरा सूझ रहा है (अर्थात् सर्वत्र विजयी होने के कारण ये श्रीराम-लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं). किन्तु यह लोहमयी (केवल फौलाद की बनी हुई) खांड़ (खांडा–खड्ग) है, ऊख की (रस की) खांड़ नहीं है जो मुंह में लेते ही गल जाय. खेद है, मुनि अब भी बेसमझ बने हुए हैं; इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं. लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपके शील को कौन नहीं जानता? वह संसारभर में प्रसिद्ध है. आप माता-पिता से तो अच्छी तरह उऋण हो ही गए, अब गुरु का ऋण रहा, जिसका जी में बड़ा सोच लगा है.

वह मानो हमारे ही मत्थे काढ़ा था . बहुत दिन बीत गए, इससे ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा. अब किसी हिसाब करने वाले को बुला लाइये, तो मैं तुरंत थैली खोलकर दे दूं. लक्ष्मणजी के कड़वे वचन सुनकर परशुरामजी ने कुठार संभाला. सारी सभा हाय! हाय! करके पुकार उठी. लक्ष्मणजी ने कहा- हे भृगुश्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओं के शत्रु! मैं ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूं (तरह दे रहा हूं). आपको कभी रणधीर बलवान वीर नहीं मिले. हे ब्राह्मण देवता! आप घर ही में बड़े हैं. यह सुनकर ‘अनुचित है, अनुचित है' कहकर सब लोग पुकार उठे. तब श्रीरघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी को रोक दिया. लक्ष्मणजी के उत्तर से, जो आहुति के समान थे, परशुरामजी के क्रोधरूपी अग्नि को बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य श्रीरामचन्द्रजी जल के समान (शान्त करने वाले) वचन बोले- हे नाथ! बालक पर कृपा कीजिये. इस सीधे और दुधमुंहे बच्चे पर क्रोध न कीजिये. यदि यह प्रभु का (आपका) कुछ भी प्रभाव जानता, तो क्या यह बेसमझ आपकी बराबरी करता? बालक यदि कुछ चपलता भी करते हैं, तो गुरु, पिता और माता मन में आनंद से भर जाते हैं. अतः इसे छोटा बच्चा और सेवक जानकर कृपा कीजिये. आप तो समदर्शी, सुशील, धीर और ज्ञानी मुनि हैं. श्रीरामचन्द्रजी के वचन सुनकर वे कुछ ठंडे पड़े. इतने में लक्ष्मणजी कुछ कहकर फिर मुस्कुरा दिये. उनको हंसते देखकर परशुरामजी के नख से शिखा तक (सारे शरीर में) क्रोध छा गया. उन्होंने कहा- हे राम! तेरा भाई बड़ा पापी है.

यह शरीर से गोरा, पर हृदय का बड़ा काला है. यह विषमुख है, दुधमुंहा नहीं. स्वभाव से ही टेढ़ा है, तेरा अनुसरण नहीं करता. यह नीच मुझे काल के समान नहीं देखता. लक्ष्मणजी ने हंसकर कहा- हे मुनि! सुनिये, क्रोध पाप का मूल है, जिसके वश में होकर मनुष्य अनुचित कर्म कर बैठते हैं और विश्वभर के प्रतिकूल चलते (सबका अहित करते) हैं. हे मुनिराज! मैं आपका दास हूं. अब क्रोध त्यागकर दया कीजिए. टूटा हुआ धनुष क्रोध करने से जुड़ नहीं जाएगा. खड़े-खड़े पैर दुखने लगे होंगे, बैठ जाइये. यदि धनुष अत्यन्त ही प्रिय हो, तो कोई उपाय किया जाय और किसी बड़े गुणी (कारीगर) को बुलाकर जुड़वा दिया जाय. लक्ष्मणजी के बोलने से जनकजी डर जाते हैं और कहते है- बस, चुप रहिये, अनुचित बोलना अच्छा नहीं. जनकपुर के स्त्री-पुरुष थर-थर कांप रहे हैं और मन-ही-मन कह रहे हैं कि छोटा कुमार बड़ा ही खोटा है. लक्ष्मणजी की निर्भय वाणी सुन-सुनकर परशुरामजी का शरीर क्रोध से जला जा रहा है और उनके बल की हानि हो रही है. तब श्रीरामचन्द्रजी पर एहसान जनाकर परशुरामजी बोले- तेरा छोटा भाई समझकर मैं इसे बचा रहा हूं. यह मन का मैला और शरीर का कैसा सुंदर है, जैसे विष के रस से भरा हुआ सोने का घड़ा! यह सुनकर लक्ष्मणजी फिर हंसे . तब श्रीरामचन्द्रजी ने तिरछी नजर से उनकी ओर देखा, जिससे लक्ष्मणजी सकुचाकर, विपरीत बोलना छोड़कर, गुरुजी के पास चले गए.

श्रीरामचन्द्रजी दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले- हे नाथ! सुनिये, आप तो स्वभाव से ही सुजान हैं. आप बालक के वचन पर कान न कीजिये (उसे सुना- अनसुना कर दीजिए). बर्रे और बालक का एक स्वभाव है. संतजन इन्हें कभी दोष नहीं लगाते. फिर उसने (लक्ष्मण ने) तो कुछ काम भी नहीं बिगाड़ा है, हे नाथ! आपका अपराधी तो मैं हूं. अतः हे स्वामी! कृपा, क्रोध, वध और बन्धन, जो कुछ करना हो, दास की तरह मुझपर कीजिए. जिस प्रकार से शीघ्र आपका क्रोध दूर हो, हे मुनिराज! बताइये, मैं वही उपाय करूं. मुनि ने कहा- हे राम! क्रोध कैसे जाय; अब भी तेरा छोटा भाई टेढ़ा ही ताक रहा है. इसकी गर्दन पर मैंने कुठार न चलाया, तो क्रोध करके किया ही क्या? मेरे जिस कुठार की घोर करनी सुनकर राजाओं की स्त्रियों के गर्भ गिर पड़ते हैं, उसी फरसे के रहते मैं इस शत्रु राजपुत्र को जीवित देख रहा हूं. हाथ चलता नहीं, क्रोध से छाती जली जाती है. राजाओं का घातक यह कुठार भी कुंठित हो गया. विधाता विपरीत हो गया, इससे मेरा स्वभाव बदल गया, नहीं तो भला, मेरे हृदय में किसी समय भी कृपा कैसी? आज दया मुझे यह दुख सहा रही है. यह सुनकर लक्ष्मणजी ने मुस्कुराकर सिर नवाया और कहा- आप की कृपारूपी वायु भी आपकी मूर्ति के अनुकूल ही है, वचन बोलते हैं, मानो फूल झड़ रहे हैं!

हे मुनि! यदि कृपा करने से आपका शरीर जला जाता है, तो क्रोध होने पर तो शरीर की रक्षा विधाता ही करेंगे. परशुरामजी ने कहा- हे जनक ! देख, यह मूर्ख बालक हठ करके यमपुरी में घर (निवास) करना चाहता है. इसको शीघ्र ही आंखों की ओट क्यों नहीं करते? यह राजपुत्र देखने में छोटा है, पर है बड़ा खोटा. लक्ष्मणजी ने हंसकर मन-ही-मन कहा- आंख मूंद लेने पर कहीं कोई नहीं है. तब परशुरामजी हृदय में अत्यन्त क्रोध भरकर श्रीरामजी से बोले- अरे शठ! तू शिवजीका धनुष तोड़कर उलटा हमीं को ज्ञान सिखाता है! तेरा यह भाई तेरी ही सम्मति से कटु वचन बोलता है और तू छल से हाथ जोड़कर विनय करता है. या तो युद्ध में मेरा सन्तोष कर, नहीं तो राम कहलाना छोड़ दे. अरे शिवद्रोही! छल त्यागकर मुझसे युद्ध कर. नहीं तो भाई सहित तुझे मार डालूंगा. इस प्रकार परशुरामजी कुठार उठाये बक रहे हैं और श्रीरामचन्द्रजी सिर झुकाये मन-ही-मन मुस्कुरा रहे हैं. श्रीरामचन्द्रजी ने मन-ही-मन कहा- गुनाह (दोष) तो लक्ष्मण का और क्रोध मुझपर करते हैं! कहीं-कहीं सीधेपन में भी बड़ा दोष होता है. टेढ़ा जानकर सब लोग किसी की भी वन्दना करते हैं; टेढ़े चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता. श्रीरामचन्द्रजी ने कहा- हे मुनीश्वर ! क्रोध छोड़िये . आपके हाथ में कुठार है और मेरा यह सिर आगे है. जिस प्रकार आपका क्रोध जाय, हे स्वामी! वही कीजिये. मुझे अपना अनुचर (दास) जानिये.

स्वामी और सेवक में युद्ध कैसा? हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! क्रोध का त्याग कीजिये. आपका वीरों का-सा वेष देखकर ही बालक ने कुछ कह डाला था; वास्तव में उसका भी कोई दोष नहीं है. आपको कुठार, बाण और धनुष धारण किये देखकर और वीर समझकर बालक को क्रोध आ गया. वह आपका नाम तो जानता था, पर उसने आपको पहचाना नहीं. अपने वंश (रघुवंश) के स्वभाव के अनुसार उसने उत्तर दिया. यदि आप मुनि की तरह आते, तो हे स्वामी! बालक आपके चरणों की धूलि सिरपर रखता. अनजाने की भूल को क्षमा कर दीजिए. ब्राह्मणों के हृदय में बहुत अधिक दया होनी चाहिए. हे नाथ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी? कहिये न, कहां चरण और कहां मस्तक! कहां मेरा राममात्र छोटा-सा नाम और कहां आपका परशु सहित बड़ा नाम. हे देव! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पवित्र (शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता) नौ गुण हैं. हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं. हे विप्र! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिये. श्रीरामचन्द्रजी ने परशुरामजी को बार-बार 'मुनि' और 'विप्रवर' कहा. तब भृगुपति (परशुरामजी) कुपित होकर बोले- तू भी अपने भाई के समान ही टेढ़ा है. तू मुझे निरा ब्राह्मण ही समझता है? मैं कैसा विप्र हूं, तुझे सुनाता हूं.

चतुरंगिणी सेना सुंदर समिधाएं (यज्ञ में जलायी जाने वाली लकड़ियां) हैं. बड़े-बड़े राजा उसमें आकर बलि के पशु हुए हैं, जिनको मैंने इसी फरसे से काटकर बलि दिया है. ऐसे करोड़ों जपयुक्त रणयज्ञ मैंने किए हैं (अर्थात् जैसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक ‘स्वाहा' शब्द के साथ आहुति दी जाती है, उसी प्रकार मैंने पुकार-पुकारकर राजाओं की बलि दी है). मेरा प्रभाव तुझे मालूम नहीं है, इसी से तू ब्राह्मण के धोखे मेरा निरादर करके बोल रहा है. धनुष तोड़ डाला, इससे तेरा घमंड बहुत बढ़ गया है. ऐसा अहंकार है, मानो संसार को जीतकर खड़ा है. श्रीरामचन्द्रजी ने कहा- हे मुनि! विचारकर बोलिए. आपका क्रोध बहुत बड़ा है. और मेरी भूल बहुत छोटी है. पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया. मैं किस कारण अभिमान करूं? हे भृगुनाथ! यदि हम सचमुच ब्राह्मण कहकर निरादर करते हैं, तो यह सत्य सुनिये, फिर संसार में ऐसा कौन योद्धा है जिसे हम डरके मारे मस्तक नवायें? देवता, दैत्य, राजा या और बहुत से योद्धा, वे चाहे बल में हमारे बराबर हों, चाहे अधिक बलवान हों, यदि रण में हमें कोई भी ललकारे तो हम उससे सुखपूर्वक लड़ेंगे, चाहे काल ही क्यों न हो? क्षत्रिय का शरीर धरकर जो युद्ध में डर गया, उस नीच ने अपने कुलपर कलंक लगा दिया. मैं स्वभाव से ही कहता हूं, कुल की प्रशंसा करके नहीं, कि रघुवंशी रण में काल से भी नहीं डरते. ब्राह्मणवंश की ऐसी ही प्रभुता (महिमा) है कि जो आपसे डरता है, वह सबसे निर्भय हो जाता है.

परशुरामजी ने कहा- हे राम! हे लक्ष्मीपति! धनुष को हाथ में लीजिये और इसे खींचिये, जिससे मेरा सन्देह मिट जाय. परशुरामजी धनुष देने लगे, तब वह आप ही चला गया. तब परशुरामजी के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ. तब उन्होंने श्रीरामजी का प्रभाव जाना, जिसके कारण उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया. वे हाथ जोड़कर वचन बोले- प्रेम उनके हृदय में समाता न था. हे रघुकुलरूपी कमलवन के सूर्य! हे राक्षसों के कुलरूपी घने जंगल को जलाने वाले अग्नि! आपकी जय हो! हे देवता, ब्राह्मण और गौका हित करने वाले! आपकी जय हो. हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम के हरने वाले! आपकी जय हो. हे विनय, शील, कृपा आदि गुणों के समुद्र और वचनों की रचना में अत्यन्त चतुर! आपकी जय हो. हे सेवकों को सुख देने वाले, सब अंगों से सुंदर और शरीर में करोड़ों कामदेवों की छवि धारण करने वाले! आपकी जय हो. मैं एक मुख से आपकी क्या प्रशंसा करूं? हे महादेवजी के मनरूपी मानसरोवर के हंस! आपकी जय हो. मैंने अनजाने में आपको बहुत-से अनुचित वचन कहे. हे क्षमा के मन्दिर दोनों भाई! मुझे क्षमा कीजिये. हे रघुकुल के पताकास्वरूप श्रीरामचन्द्रजी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो. ऐसा कहकर परशुरामजी तपके लिए वन को चले गए.

देवताओं ने नगाड़े बजाये, वे प्रभु के ऊपर फूल बरसाने लगे. जनकपुर के स्त्री-पुरुष सब हर्षित हो गए. उनका मोहमय अज्ञान से उत्पन्न शूल मिट गया. खूब जोर से बाजे बजने लगे. सभी ने मनोहर मंगल-साज सजे. सुंदर मुख और सुंदर नेत्रों वाली तथा कोयल के समान मधुर बोलने वाली स्त्रियां झुंड-की-झुंड मिलकर सुंदर गान करने लगीं. जनकजी के सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता. मानो जन्म का दरिद्री धन का खजाना पा गया हो! सीताजी का भय जाता रहा; वे ऐसी सुखी हुईं जैसे चन्द्रमा के उदय होने से चकोर की कन्या सुखी होती है. जनकजी ने विश्वामित्रजी को प्रणाम किया और कहा- प्रभु ही की कृपा से श्रीरामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ा है. दोनों भाइयों ने मुझे कृतार्थ कर दिया. हे स्वामी! अब जो उचित हो सो कहिये. मुनि ने कहा- हे चतुर नरेश! सुनो, यों तो विवाह धनुष के अधीन था; धनुष के टूटते ही विवाह हो गया. देवता, मनुष्य और नाग सब किसी को यह मालूम है. तथापि तुम जाकर अपने कुल का जैसा व्यवहार हो, ब्राह्मणो, कुल के बूढ़ों और गुरुओं से पूछकर और वेदों में वर्णित जैसा आचार हो वैसा करो. जाकर अयोध्या को दूत भेजो, जो राजा दशरथ को बुला लावें. राजा ने प्रसन्न होकर कहा- हे कृपालु! बहुत अच्छा! और उसी समय दूतों को बुलाकर भेज दिया.

फिर सब महाजनों को बुलाया और सबने आकर राजा को आदरपूर्वक सिर नवाया. राजा ने कहा- बाजार, रास्ते, घर, देवालय और सारे नगर को चारों ओर से सजाओ. महाजन प्रसन्न होकर चले और अपने-अपने घर आए. फिर राजा ने नौकरों को बुला भेजा और उन्हें आज्ञा दी कि विचित्र मंडप सजाकर तैयार करो. यह सुनकर वे सब राजा के वचन सिरपर धरकर और सुख पाकर चले. उन्होंने अनेक कारीगरों को बुला भेजा, जो मंडप बनाने में कुशल और चतुर थे. उन्होंने ब्रह्मा की वन्दना करके कार्य आरम्भ किया और पहले सोने के केले के खंभे बनाये. हरी-हरी मणियों (पन्ने) के पत्ते और फल बनाये तथा पद्मराग मणियों (माणिक) के फूल बनाए. मंडप की अत्यन्त विचित्र रचना देखकर ब्रह्मा का मन भी भूल गया. बांस सब हरी-हरी मणियों (पन्ने) के सीधे और गांठों से युक्त ऐसे बनाये जो पहचाने नहीं जाते थे कि मणियों के हैं या साधारण. सोने की सुंदर नागबेलि (पान की लता) बनायी, जो पत्तों सहित ऐसी भली मालूम होती थी कि पहचानी नहीं जाती थी. उसी नागबेलि के रचकर और पच्चीकारी करके बन्धन (बांधने की रस्सी) बनाए. बीच-बीच में मोतियों की सुंदर झालरें हैं. माणिक, पन्ने, हीरे और फिरोजे, इन रत्नों को चीरकर, कोरकर और पच्चीकारी करके, इनके लाल, हरे, सफेद और फिरोजी रंग के कमल बनाए. भौरे और बहुत रंगों के पक्षी बनाए, जो हवा के सहारे गूंजते और कूजते थे. खंभों पर देवताओं की मूर्तियां गढ़कर निकालीं, जो सब मंगलद्रव्य लिए खड़ी थीं.

नीलमणि को कोरकर अत्यन्त सुंदर आम के पत्ते बनाए. सोने के बौर (आम के फूल) और रेशम की डोरी से बंधे हुए पन्ने के बने फलों के गुच्छे सुशोभित हैं. ऐसे सुंदर और उत्तम बंदनवार बनाए मानो कामदेव ने फंदे सजाए हों. अनेकों मंगल-कलश और सुंदर ध्वजा, पताका, परदे और चंवर बनाए, जिसमें मणियों के अनेकों सुंदर दीपक हैं, उस विचित्र मंडप का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता. जिस मंडप में श्रीजानकी जी दुल्हन होंगी, किस कवि की ऐसी बुद्धि है जो उसका वर्णन कर सके. जिस मंडप में रूप और गुणों के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी दूल्हे होंगे, वह मंडप तीनों लोकों में प्रसिद्ध होना ही चाहिए. जनकजी के महल की जैसी शोभा है, वैसी ही शोभा नगर के प्रत्येक घर की दिखायी देती है. उस समय जिसने तिरहुत को देखा, उसे चौदह भुवन तुच्छ जान पड़े. जनकपुर में नीच के घर भी उस समय जो सम्पदा सुशोभित थी, उसे देखकर इन्द्र भी मोहित हो जाता था. जिस नगर में साक्षात् लक्ष्मीजी कपट से स्त्री का सुंदर वेष बनाकर बसती हैं, उस पुर की शोभा का वर्णन करने में सरस्वती और शेष भी सकुचाते हैं. जनकजी के दूत श्रीरामचन्द्रजी की पवित्र पुरी अयोध्या में पहुंचे. सुंदर नगर देखकर वे हर्षित हुए. राजद्वार पर जाकर उन्होंने खबर भेजी; राजा दशरथजी ने सुनकर उन्हें बुला लिया.

दूतों ने प्रणाम करके चिट्ठी दी. प्रसन्न होकर राजा ने स्वयं उठकर उसे लिया. चिट्ठी बांचते समय उनके नेत्रों में जल (प्रेम और आनंद के आंसू) छा गया, शरीर पुलकित हो गया और छाती भर आई. हृदय में राम और लक्ष्मण हैं, हाथ में सुंदर चिट्ठी है, राजा उसे हाथ में लिए ही रह गए, खट्टी-मीठी कुछ भी कह न सके. फिर धीरज धरकर उन्होंने पत्रिका पढ़ी. सारी सभा सच्ची बात सुनकर हर्षित हो गई. भरतजी अपने मित्रों और भाई शत्रुघ्न के साथ जहां खेलते थे, वहीं समाचार पाकर वे आ गए. बहुत प्रेम से सकुचाते हुए पूछते हैं- पिताजी! चिट्ठी कहां से आई है? हमारे प्राणों से प्यारे दोनों भाई, कहिये सकुशल तो हैं और वे किस देश में हैं? स्नेह से सने ये वचन सुनकर राजा ने फिर से चिट्ठी पढ़ी. चिट्ठी सुनकर दोनों भाई पुलकित हो गए. स्नेह इतना अधिक हो गया कि वह समाता नहीं. भरतजी का पवित्र प्रेम देखकर सारी सभा ने विशेष सुख पाया. तब राजा दूतों को पास बैठाकर मन को हरने वाले मीठे वचन बोले- भैया! कहो, दोनों बच्चे कुशल से तो हैं? तुमने अपनी आंखों से उन्हें अच्छी तरह देखा है न? सांवले और गोरे शरीर वाले वे धनुष और तरकस धारण किए रहते हैं, किशोर अवस्था है, विश्वामित्र मुनि के साथ हैं. तुम उनको पहचानते हो तो उनका स्वभाव बताओ. राजा प्रेम के विशेष वश होने से बार-बार इस प्रकार कह (पूछ) रहे हैं.

भैया! जिस दिन से मुनि उन्हें लिवा ले गए, तबसे आज ही हमने सच्ची खबर पाई है. कहो तो महाराज जनक ने उन्हें कैसे पहचाना? ये प्रिय (प्रेमभरे) वचन सुनकर दूत मुसकराए. दूतों ने कहा- हे राजाओं के मुकुटमणि! सुनिये, आपके समान धन्य और कोई नहीं है, जिनके राम-लक्ष्मण-जैसे पुत्र हैं, जो दोनों विश्व के विभूषण हैं. आपके पुत्र पूछने योग्य नहीं हैं. वे पुरुष सिंह तीनों लोकों के प्रकाशस्वरूप हैं. जिनके यश के आगे चन्द्रमा मलिन और प्रताप के आगे सूर्य शीतल लगता है. हे नाथ! उनके लिए आप कहते हैं कि उन्हें कैसे पहचाना! क्या सूर्य को हाथ में दीपक लेकर देखा जाता है? सीताजी के स्वयंवर में अनेकों राजा और एक-से-एक बढ़कर योद्धा एकत्र हुए थे, परंतु शिवजी के धनुष को कोई भी नहीं हटा सका. सारे बलवान वीर हार गए. तीनों लोकों में जो वीरता के अभिमानी थे, शिवजी के धनुष ने सबकी शक्ति तोड़ दी. बाणासुर, जो सुमेरु को भी उठा सकता था, वह भी हृदय में हारकर परिक्रमा करके चला गया; और जिसने खेल से ही कैलास को उठा लिया था, वह रावण भी उस सभा में पराजय को प्राप्त हुआ. हे महाराज! सुनिये, वहां ऐसे-ऐसे योद्धा हार मान गए. रघुवंशमणि श्रीरामचन्द्रजी ने बिना ही प्रयास शिवजी के धनुष को वैसे ही तोड़ डाला जैसे हाथी कमल की डंडी को तोड़ डालता है!

धनुष टूटने की बात सुनकर परशुरामजी क्रोध भरे आए और उन्होंने बहुत प्रकार से आंखें दिखलाईं. अंत में उन्होंने भी श्रीरामचन्द्रजी का बल देखकर उन्हें अपना धनुष दे दिया और बहुत प्रकार से विनती करके वन को गमन किया. हे राजन! जैसे श्रीरामचन्द्रजी अतुलनीय बली हैं, वैसे ही तेजनिधान फिर लक्ष्मणजी भी हैं, जिनके देखने मात्र से राजा लोग ऐसे कांप उठते थे, जैसे हाथी सिंह के बच्चे के ताकने से कांप उठते हैं. हे देव! आपके दोनों बालकों को देखने के बाद अब आंखों के नीचे कोई आता ही नहीं (हमारी दृष्टि पर कोई चढ़ता ही नहीं). प्रेम, प्रताप और वीर-रस में पगी हुई दूतों की वचन रचना सबको बहुत प्रिय लगी. सभा सहित राजा प्रेम में मग्न हो गए और दूतों को निछावर देने लगे. उन्हें निछावर देते देखकर यह नीति विरुद्ध है, ऐसा कहकर दूत अपने हाथों से कान मूंदने लगे. धर्म को विचारकर सभी ने सुख माना, तब राजा ने उठकर वसिष्ठजी के पास जाकर उन्हें पत्रिका दी और आदरपूर्वक दूतों को बुलाकर सारी कथा गुरुजी को सुना दी. सब समाचार सुनकर और अत्यन्त सुख पाकर गुरु बोले- पुण्यात्मा पुरुष के लिए पृथ्वी सुखों से छाई हुई है. जैसे नदियां समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को नदी की कामना नहीं होती. वैसे ही सुख और सम्पत्ति बिना ही बुलाए स्वाभाविक ही धर्मात्मा पुरुष के पास जाती हैं.

तुम्हारे समान पुण्यात्मा जगत में न कोई हुआ, न है और न होने का ही है. हे राजन्! तुमसे अधिक पुण्य और किसका होगा, जिसके राम-सरीखे पुत्र हैं और जिसके चारों बालक वीर, विनम्र, धर्म का व्रत धारण करने वाले और गुणों के सुंदर समुद्र हैं. तुम्हारे लिए सभी कालों में कल्याण है. अतएव डंका बजवाकर बारात सजाओ और जल्दी चलो. गुरुजी के ऐसे वचन सुनकर, 'हे नाथ! बहुत अच्छा' कहकर और सिर नवाकर तथा दूतों को डेरा दिलवाकर राजा महल में गए. राजा ने सारे रनिवास को बुलाकर जनकजी की पत्रिका बांचकर सुनाई. समाचार सुनकर सब रानियां हर्ष से भर गईं. राजा ने फिर दूसरी सब बातों का (जो दूतों के मुख से सुनी थीं) वर्णन किया. प्रेम में प्रफुल्लित हुई रानियां ऐसी सुशोभित हो रही हैं जैसे मोरनी बादलों की गरज सुनकर प्रफुल्लित होती हैं. बड़ी-बूढ़ी अथवा गुरुओं की स्त्रियां प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे रही हैं. माताएं अत्यन्त आनंद में मग्न हैं. उस अत्यन्त प्रिय पत्रिका को आपस में लेकर सब हृदय से लगाकर छाती शीतल करती हैं. राजाओं में श्रेष्ठ दशरथजी ने श्रीराम-लक्ष्मण की कीर्ति और करनी का बारंबार वर्णन किया 'यह सब मुनि की कृपा है' ऐसा कहकर वे बाहर चले आए. तब रानियों ने ब्राह्मणों को बुलाया और आनंदसहित उन्हें दान दिए. श्रेष्ठ ब्राह्मण आशीर्वाद देते हुए चले. (जारी है…)

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