जनकजी ने शतानन्द जी को बुलाया और उन्हें तुरंत ही विश्वामित्र मुनि के पास भेजा. उन्होंने आकर जनकजी की विनती सुनाई. विश्वामित्र जी ने हर्षित होकर दोनों भाइयों को बुलाया. शतानन्द जी के चरणों की वन्दना करके प्रभु श्रीरामचन्द्रजी गुरुजी के पास जा बैठे. तब मुनि ने कहा- हे तात! चलो, जनकजी ने बुला भेजा है. चलकर सीताजी के स्वयंवर को देखना चाहिए. देखें ईश्वर किसको बड़ाई देते हैं. लक्ष्मणजी ने कहा- हे नाथ! जिसपर आपकी कृपा होगी, वही बड़ाई का पात्र होगा (धनुष तोड़ने का श्रेय उसी को प्राप्त होगा). इस श्रेष्ठ वाणी को सुनकर सब मुनि प्रसन्न हुए. सभी ने सुख मानकर आशीर्वाद दिया. फिर मुनियों के समूह सहित कृपालु श्रीरामचन्द्रजी धनुषयज्ञशाला देखने चले. दोनों भाई रंगभूमि में आए हैं, ऐसी खबर जब सब नगरनिवासियों ने पाई, तब बालक, जवान, बूढ़े, स्त्री, पुरुष सभी घर और काम-काज को भुलाकर चल दिए. जब जनकजी ने देखा कि बड़ी भीड़ हो गई है, तब उन्होंने सब विश्वासपात्र सेवकों को बुलवा लिया और कहा- तुम लोग तुरंत सब लोगों के पास जाओ और सब किसी को यथायोग्य आसन दो.
राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए।।
गनु सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा।।
उन सेवकों ने कोमल और नम्र वचन कहकर उत्तम, मध्यम, नीच और लघु (सभी श्रेणी के) स्त्री-पुरुषों को अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठाया. उसी समय राजकुमार (राम और लक्ष्मण) वहां आए. वे ऐसे सुंदर हैं मानो साक्षात मनोहरता ही उनके शरीरों पर छा रही हो . सुंदर सांवला और गोरा उनका शरीर है. वे गुणों के समुद्र, चतुर और उत्तम वीर हैं. वे राजाओं के समाज में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो तारागणों के बीच दो पूर्ण चन्द्रमा हों. जिनकी जैसी भावना थी, प्रभु की मूर्ति उन्होंने वैसी ही देखी. महान रणधीर (राजालोग) श्रीरामचन्द्रजी के रूप को ऐसा देख रहे हैं, मानो स्वयं वीर-रस शरीर धारण किए हुए हो. कुटिल राजा प्रभु को देखकर डर गए, मानो बड़ी भयानक मूर्ति हो. छल से जो राक्षस वहां राजाओं के वेष में बैठे थे, उन्होंने प्रभु को प्रत्यक्ष काल के समान देखा. नगरनिवासियों ने दोनों भाइयों को मनुष्यों के भूषणरूप और नेत्रों को सुख देने वाला देखा. स्त्रियां हृदय में हर्षित होकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें देख रही हैं. मानो शृंगार रस ही परम अनुपम मूर्ति धारण किए सुशोभित हो रहा हो. विद्वानों को प्रभु विराट रूप में दिखाई दिए, जिसके बहुत से मुंह, हाथ, पैर, नेत्र और सिर हैं. जनकजी के सजातीय ( कुटुम्बी) प्रभु को इस तरह देख रहे हैं, जैसे सगे सजन (सम्बन्धी) प्रिय लगते हैं.
जनक समेत रानियां उन्हें अपने बच्चे के समान देख रही हैं, उनकी प्रीति का वर्णन नहीं किया जा सकता. योगियों को वे शान्त, शुद्ध, सम और स्वतःप्रकाश परम तत्त्व के रूप में दिखे. हरिभक्तों ने दोनों भाइयों को सब सुखों के देने वाले इष्टदेव के समान देखा. सीताजी जिस भाव से श्रीरामचन्द्रजी को देख रही हैं, वह स्नेह और सुख तो कहने में ही नहीं आता. उस (स्नेह और सुख) का वे हृदय में अनुभव कर रही हैं, पर वे भी उसे कह नहीं सकतीं. फिर कोई कवि उसे किस प्रकार कह सकता है. इस प्रकार जिसका जैसा भाव था, उसने कोसलाधीश श्रीरामचन्द्रजी को वैसा ही देखा. सुंदर सांवले और गोरे शरीर वाले तथा विश्वभर के नेत्रों को चुराने वाले कोसलाधीश के कुमार राजसमाज में इस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं. दोनों मूर्तियां स्वभाव से ही मन को हरने वाली हैं. करोड़ों कामदेवों की उपमा भी उनके लिए तुच्छ है. उनके सुंदर मुख शरद् पूर्णिमा के चन्द्रमा की भी निन्दा करने वाले (उसे नीचा दिखाने वाले) हैं और कमल के समान नेत्र मन को बहुत ही भाते हैं. सुंदर चितवन सारे संसार के मन को हरने वाले कामदेव के भी मन को हरने वाली है. वह हृदय को बहुत ही प्यारी लगती है, पर उसका वर्णन नहीं किया जा सकता. सुंदर गाल हैं, कानों में चंचस (झूमते हुए) कुंडस हैं. ठोड़ी और अधर (ओठ) सुंदर हैं, कोमल वाणी है. हंसी चन्द्रमा की किरणों का तिरस्कार करने वाली है. भौंहें टेढ़ी और नासिका मनोहर है. चौड़े ललाट पर तिलक झलक रहे हैं. काले घुंघराले बालों को देखकर भौंरों की पंक्तियां भी लजा जाती हैं.
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता।।
रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया।।
पीली चौकोनी टोपियां सिरों पर सुशोभित हैं, जिनके बीच-बीच में फूलों की कलियां बनाई हुई हैं. शंख के समान सुंदर गले में मनोहर तीन रेखाएं हैं, जो मानो तीनों लोकों की सुंदरता की सीमा को बता रही हैं. हृदयों पर गजमुक्ताओं के सुंदर कंठे और तुलसी की मालाएं सुशोभित हैं. उनके कंधे बैलों के कंधे की तरह ऊंचे तथा पुष्ट हैं, ऐंड (खड़े होने की शान) सिंह की-सी है और भुजाएं विशाल एवं बल की भंडार हैं. कमर में तरकस और पीताम्बर बांधे हैं. दाहिने हाथों में बाण और बायें सुंदर कंधों पर धनुष तथा पीले यज्ञोपवीत (जनेऊ) सुशोभित हैं. नख से लेकर शिखा तक सब अंग सुंदर हैं, उनपर महान् शोभा छायी हुई है. उन्हें देखकर सब लोग सुखी हुए. नेत्र एकटक (निमेष शून्य) हैं और तारे (पुतलियां) भी नहीं चलते. जनकजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए. तब उन्होंने जाकर मुनि के चरणकमल पकड़ लिए. विनती करके अपनी कथा सुनाई और मुनि को सारी रंगभूमि (यज्ञशाला) दिखलाई. मुनि के साथ दोनों श्रेष्ठ राजकुमार जहां-जहां जाते हैं, वहां-वहां सब कोई आश्चर्यचकित हो देखने लगते हैं. सबने रामजी को अपनी-अपनी ओर ही मुख किए हुए देखा; परन्तु इसका कुछ भी विशेष रहस्य कोई नहीं जान सका. मुनि ने राजा से कहा- रंगभूमि की रचना बड़ी सुंदर है.
सब मंचों से एक मंच अधिक सुंदर, उज्ज्वल और विशाल था. राजा ने मुनि सहित दोनों भाइयों को उसपर बैठाया. प्रभु को देखकर सब राजा हृदय में ऐसे हार गए (निराश एवं उत्साहहीन हो गए) जैसे पूर्ण चन्द्रमा के उदय होने पर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं. उनके तेज को देखकर सबके मन में ऐसा विश्वास हो गया कि रामचन्द्रजी ही धनुष को तोड़ेंगे, इसमें संदेह नहीं. इधर उनके रूप को देखकर सबके मन में यह निश्चय हो गया कि शिवजी के विशाल धनुष को जो सम्भव है न टूट सके बिना तोड़े भी सीताजी श्रीरामचन्द्रजी के ही गले में जयमाल डालेंगी. दूसरे राजा, जो अविवेक से अंधे हो रहे थे और अभिमानी थे, यह बात सुनकर बहुत हंसे. उन्होंने कहा- धनुष तोड़ने पर भी विवाह होना कठिन है, फिर बिना तोड़े तो राजकुमारी को ब्याह ही कौन सकता है. काल ही क्यों न हो, एक बार तो सीता के लिए उसे भी हम युद्ध में जीत लेंगे. यह घमंड की बात सुनकर दूसरे राजा, जो धर्मात्मा, हरिभक्त और सयाने थे, मुसकराये. उन्होंने कहा- राजाओं के गर्व दूर करके श्रीरामचन्द्रजी सीताजी को ब्याहेंगे. रही युद्ध की बात, सो महाराज दशरथ के रण में बांके पुत्रों को युद्ध में तो जीत ही कौन सकता है. गाल बजाकर व्यर्थ ही मत मरो. मन के लड्डुओं से भी कहीं भूख बुझती है? हमारी परम पवित्र (निष्कपट) सीख को सुनकर सीताजी को अपने जी में साक्षात जगज्जननी समझो. और श्रीरघुनाथजी को जगत का पिता (परमेश्वर) विचारकर, नेत्र भरकर उनकी छवि देख लो ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलेगा.
सुंदर, सुख देने वाले और समस्त गुणों की राशि ये दोनों भाई शिवजी के हृदय में बसने वाले हैं (स्वयं शिवजी भी जिन्हें सदा हृदय में छिपाये रखते हैं, वे तुम्हारे नेत्रों के सामने आ गए हैं). समीप आए हुए (भगवद्दर्शन रूप) अमृत के समुद्र को छोड़कर तुम जगज्जननी जानकी को पत्नी रूप में पाने की दुराशारूप मिथ्या मृगजल को देखकर दौड़कर क्यों मरते हो? फिर जिसको जो अच्छा लगे वही जाकर करो. हमने तो श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन करके आज जन्म लेने का फल पा लिया. ऐसा कहकर अच्छे राजा प्रेममग्न होकर श्रीरामजी का अनुपम रूप देखने लगे. मनुष्यों की तो बात ही क्या, देवता लोग भी आकाश से विमानों पर चढ़े हुए दर्शन कर रहे हैं और सुंदर गान करते हुए फूल बरसा रहे हैं. तब सुअवसर जानकर जनकजी ने सीताजी को बुलावा भेजा. सब चतुर और सुंदर सखियां आदरपूर्वक उन्हें लिवा चलीं. रूप और गुणों की खान जगज्जननी जानकीजी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता. उनके लिए मुझे काव्य की सब उपमाएं तुच्छ लगती हैं; क्योंकि वे लौकिक स्त्रियों के अंगों से अनुराग रखने वाली हैं.
सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रुप गनु खानी।।
उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं।।
सीताजी के वर्णन में उन्हीं उपमाओं को देकर कौन कुकवि कहलाए और अपयश का भागी बने (अर्थात् सीताजीके लिए उन उपमाओं का प्रयोग करना सुकवि के पद से च्युत होना और अपकीर्ति मोल लेना है, कोई भी सुकवि ऐसी नादानी एवं अनुचित कार्य नहीं करेगा.) यदि किसी स्त्री के साथ सीताजी की तुलना की जाय तो जगत में ऐसी सुंदर युवती है ही कहां जिसकी उपमा उन्हें दी जाय. पृथ्वी की स्त्रियों की तो बात ही क्या, देवताओं की स्त्रियों को भी यदि देखा जाय तो हमारी अपेक्षा कहीं अधिक दिव्य और सुंदर हैं, तो उनमें सरस्वती तो बहुत बोलने वाली हैं; पार्वती अर्द्धांगिनी हैं कामदेव की स्त्री रति पति को बिना शरीर का (अनंग) जानकर बहुत दुखी रहती है और जिनके विष और मद्य-जैसे [समुद्र से उत्पन्न होने के नाते] प्रिय भाई हैं, उन लक्ष्मी के समान तो जानकीजी को कहा ही कैसे जाय.
[जिन लक्ष्मीजी की बात ऊपर कही गई है वे निकली थीं खारे समुद्र से, जिसको मथने के लिए भगवान ने अति कर्कश पीठ वाले कच्छप का रूप धारण किया, रस्सी बनाई गई महान विषधर वासुकि नाग की, मथानी का कार्य किया अतिशय कठोर मन्दराचल पर्वत ने और उसे मथा सारे देवताओं और दैत्यों ने मिलकर. जिन लक्ष्मी को अतिशय शोभा की खान और अनुपम सुन्दरी कहते हैं, उनको प्रकट करने में हेतु बने ये सब असुंदर एवं स्वाभाविक ही कठोर उपकरण. ऐसे उपकरणों से प्रकट हुई लक्ष्मी श्रीजानकीजी की समता को कैसे पा सकती हैं. इस प्रकार का संयोग होने से जब सुंदरता और सुख की मूल लक्ष्मी उत्पन्न हो, तो भी कवि लोग उसे बहुत संकोच के साथ सीताजी के समान कहेंगे.
सयानी सखियां सीताजी को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हुई चलीं. सीताजी के नवल शरीर पर सुंदर साड़ी सुशोभित है. जगज्जननी की महान छवि अतुलनीय है. सब आभूषण अपनी-अपनी जगह पर शोभित हैं, जिन्हें सखियों ने अंग-अंग में भलीभांति सजाकर पहनाया है. जब सीताजी ने रंगभूमि में पैर रखा, तब उनका दिव्य रूप देखकर स्त्री-पुरुष सभी मोहित हो गए. देवताओं ने हर्षित होकर नगाड़े बजाए और पुष्प बरसाकर अप्सराएं गाने लगीं. सीताजी के करकमलों में जयमाला सुशोभित है. सब राजा चकित होकर अचानक उनकी ओर देखने लगे. सीताजी चकित चित्त से श्रीरामजी को देखने लगीं, तब सब राजा लोग मोह के वश हो गए. सीताजी ने मुनि के पास बैठे हुए दोनों भाइयों को देखा तो उनके नेत्र अपना खजाना पाकर ललचाकर वहीं श्रीरामजी में जा लगे. परन्तु गुरुजनों की लाज से तथा बहुत बड़े समाज को देखकर सीताजी सकुचा गईं. वे श्रीरामचन्द्रजी को हृदय में लाकर सखियों की ओर देखने लगीं. श्रीरामचन्द्रजी का रूप और सीताजी की छवि देखकर स्त्री पुरुषों ने पलक मारना छोड़ दिया. सभी अपने मन में सोचते हैं, पर कहते सकुचाते हैं. मन-ही-मन वे विधाता से विनय करते हैं.
छल से जो राक्षस वहां राजाओं के वेष में बैठे थे, उन्होंने प्रभु को प्रत्यक्ष काल के समान देखा. नगरनिवासियों ने दोनों भाइयों को मनुष्यों के भूषणरूप और नेत्रों को सुख देने वाला देखा. स्त्रियां हृदय में हर्षित होकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें देख रही हैं. मानो शृंगार रस ही परम अनुपम मूर्ति धारण किए सुशोभित हो रहा हो. विद्वानों को प्रभु विराट रूप में दिखाई दिए, जिसके बहुत से मुंह, हाथ, पैर, नेत्र और सिर हैं. जनकजी के सजातीय ( कुटुम्बी) प्रभु को इस तरह देख रहे हैं, जैसे सगे सजन (संबंधी) प्रिय लगते हैं.
हे विधाता! जनक की मूढ़ता को शीघ्र हर लीजिए और हमारी ही जैसी सुंदर बुद्धि उन्हें दीजिए कि जिससे बिना ही विचार किए राजा अपना प्रण छोड़कर सीताजी का विवाह रामजी से कर दें. संसार उन्हें भला कहेगा, क्योंकि यह बात सब किसी को अच्छी लगती है. हठ करने से अंत में भी हृदय जलेगा. सब लोग इसी लालसा में मग्न हो रहे हैं कि जानकीजी के योग्य वर तो यह सांवला ही है. तब राजा जनक ने बंदीजनों (भाटों) को बुलाया. वे विरुदावली (वंश की कीर्ति) गाते हुए चले आए. राजा ने कहा- जाकर मेरा प्रण सबसे कहो. भाट चले, उनके हृदय में कम आनंद न था. भाटों ने श्रेष्ठ वचन कहा- हे पृथ्वी की पालना करने वाले सब राजागण! सुनिए. हम अपनी भुजा उठाकर जनकजी का विशाल प्रण कहते हैं. राजाओं की भुजाओं का बल चन्द्रमा है, शिवजी का धनुष राहु है, वह भारी है, कठोर है, यह सबको विदित है. बड़े भारी योद्धा रावण और बाणासुर भी इस धनुष को देखकर चुपके-से चलते बने. उसी शिवजी के कठोर धनुष को आज इस राजसमाज में जो भी तोड़ेगा, तीनों लोकों की विजय के साथ ही उसको जानकीजी बिना किसी विचार के हठपूर्वक वरण करेंगी. प्रण सुनकर सब राजा ललचा उठे. जो वीरता के अभिमानी थे, वे मन में बहुत ही तमतमाए. कमर कसकर अकुलाकर उठे और अपने इष्टदेवों को सिर नवाकर चले.
तमकि धरहिं धनुमूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ।।
वे तमककर शिवजी के धनुष की ओर देखते हैं और फिर निगाह जमाकर उसे पकड़ते हैं. करोड़ों भांति से जोर लगाते हैं, पर वह उठता ही नहीं. जिन राजाओं के मन में कुछ विवेक है, वे धनुष के पास ही नहीं जाते. वे मूर्ख राजा तमककर (किटकिटाकर) धनुष को पकड़ते हैं, परंतु जब नहीं उठता तो लजाकर चले जाते हैं, मानो वीरों की भुजाओं का बल पाकर वह धनुष अधिक-अधिक भारी होता जाता है. तब दस हजार राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगे, तो भी वह उनके टाले नहीं टलता. शिवजी का वह धनुष कैसे नहीं डिगता था, जैसे कामी पुरुष के वचनों से सती का मन (कभी) चलायमान नहीं होता. सब राजा उपहास के योग्य हो गए. जैसे वैराग्य के बिना संन्यासी उपहास के योग्य हो जाता है. कीर्ति, विजय, बड़ी वीरता- इन सबको वे धनुष के हाथों बरबस हारकर चले गए. राजा लोग हृदय से हारकर श्रीहीन (हतप्रभ) हो गए और अपने-अपने समाज में जा बैठे. राजाओं को असफल देखकर जनक अकुला उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोध में सने हुए थे. मैंने जो प्रण ठाना था, उसे सुनकर द्वीप-द्वीप के अनेकों राजा आए. देवता और दैत्य भी मनुष्य का शरीर धारण करके आए तथा और भी बहुत से रणधीर वीर आए, परंतु धनुष को तोड़कर मनोहर कन्या, बड़ी विजय और अत्यन्त सुंदर कीर्ति को पाने वाला मानो ब्रह्मा ने किसी को रचा ही नहीं.
कहिये, यह लाभ किसको अच्छा नहीं लगता. परंतु किसी ने भी शंकरजी का धनुष नहीं चढ़ाया. अरे भाई! चढ़ाना और तोड़ना तो दूर रहा, कोई तिलभर भूमि भी छुड़ा न सका. अब कोई वीरता का अभिमानी नाराज न हो. मैंने जान लिया, पृथ्वी वीरों से खाली हो गई. अब आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाओ. ब्रह्मा ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं. यदि प्रण छोड़ता हूं तो पुण्य जाता है इसलिए क्या करूं, कन्या कुंआरी ही रहे. यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरों से शून्य है, तो प्रण करके उपहास का पात्र न बनता. जनक के वचन सुनकर सभी स्त्री-पुरुष जानकीजी की ओर
देखकर दुखी हुए, परंतु लक्ष्मणजी तमतमा उठे. उनकी भौंहें टेढ़ी हो गईं, होंठ फड़कने लगे और नेत्र क्रोध से लाल हो गए. श्रीरघुवीरजी के डर से कुछ कह तो सकते नहीं, पर जनक के वचन उन्हें बाण-से लगे. जब न रह सके तब श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलों में सिर नवाकर वे यथार्थ वचन बोले- रघुवंशियों में कोई भी जहां होता है, उस समाज में ऐसे वचन कोई नहीं कहता, जैसे अनुचित वचन रघुकुल शिरोमणि श्रीरामजी को उपस्थित जानते हुए भी जनकजी ने कहे हैं. हे सूर्यकुलरूपी कमल के सूर्य! सुनिये, मैं स्वभाव ही से कहता हूं, कुछ अभिमान करके नहीं, यदि आपकी आज्ञा पाऊं, तो मैं ब्रह्मांड को गेंद की तरह उठा लूं.
और उसे कच्चे घड़े की तरह फोड़ डालूं. मैं सुमेरु पर्वत को मूली की तरह तोड़ सकता हूं, हे भगवन! आपके प्रताप की महिमा से यह बेचारा पुराना धनुष तो कौन चीज है. ऐसा जानकर हे नाथ! आज्ञा हो तो कुछ खेल करूं, उसे भी देखिये. धनुष को कमल की डंडी की तरह चढ़ाकर उसे सौ योजन तक दौड़ा लिए चला जाऊं. हे नाथ! आपके प्रताप के बल से धनुष को कुकुरमुत्ते की तरह तोड़ दूं. यदि ऐसा न करूं तो प्रभु के चरणों की शपथ है, फिर मैं धनुष और तरकस को कभी हाथ में भी न लूंगा. ज्यों ही लक्ष्मणजी क्रोध भरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओं के हाथी कांप गए. सभी लोग और सब राजा डर गए. सीताजी के हृदय में हर्ष हुआ और जनकजी सकुचा गए. गुरु विश्वामित्रजी, श्रीरघुनाथजी और सब मुनि मन में प्रसन्न हुए और बार-बार पुलकित होने लगे. श्रीरामचन्द्रजी ने इशारे से लक्ष्मण को मना किया और प्रेमसहित अपने पास बैठा लिया. विश्वामित्रजी शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी बोले- हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोड़ो और हे तात! जनक का संताप मिटाओ. गुरु के वचन सुनकर श्रीरामजी ने चरणों में सिर नवाया. उनके मन में न हर्ष हुआ, न विषाद; और वे अपनी खड़े होने की शान से जवान सिंह को भी लजाते हुए सहज स्वभाव से ही उठ खड़े हुए.
बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी।।
उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा।।
मंच रूपी उदयाचल पर रघुनाथजी रूपी बालसूर्य के उदय होते ही सब संतरूपी कमल खिल उठे और नेत्ररूपी भौरे हर्षित हो गए. राजाओं की आशारूपी रात्रि नष्ट हो गई. उनके वचन रूपी तारों के समूह का चमकना बंद हो गया. अभिमानी राजा रूपी कुमुद संकुचित हो गए और कपटी राजा रूपी उल्लू छिप गए. मुनि और देवतारूपी चकवे शोकरहित हो गए. वे फूल बरसाकर अपनी सेवा प्रकट कर रहे हैं. प्रेमसहित गुरु के चरणों की वंदना करके श्रीरामचन्द्रजी ने मुनियों से आज्ञा मांगी. समस्त जगत के स्वामी श्रीरामजी सुंदर मतवाले श्रेष्ठ हाथी की-सी चाल से स्वाभाविक ही चले. श्रीरामचन्द्रजी के चलते ही नगरभर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो गए और उनके शरीर रोमांच से भर गए. उन्होंने पितर और देवताओं की वन्दना करके अपने पुण्यों का स्मरण किया. यदि हमारे पुण्यों का कुछ भी प्रभाव हो, तो हे गणेश गोसाईं! रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को कमल की डंडी की भांति तोड़ डालें. श्रीरामचन्द्रजी को वात्सल्य प्रेम के साथ देखकर और सखियों को समीप बुलाकर सीताजी की माता स्नेहवश विलखकर ये वचन बोलीं- हे सखी! ये जो हमारे हितू कहलाते हैं, वे भी सब तमाशा देखने वाले हैं. कोई भी इनके गुरु विश्वामित्रजी को समझाकर नहीं कहता कि ये रामजी बालक हैं, इनके लिए ऐसा हठ अच्छा नहीं.
रावण और बाणासुर ने जिस धनुष को छुआ तक नहीं और सब राजा घमंड करके हार गए, वही धनुष इस सुकुमार राजकुमार के हाथ में दे रहे हैं. हंस के बच्चे भी कहीं मंदराचल पहाड़ उठा सकते हैं? राजा का भी सारा सयानापन समाप्त हो गया. हे सखी! विधाता की गति कुछ जानने में नहीं आती. तब एक चतुर (रामजी के महत्त्व को जानने वाली) सखी कोमल वाणी से बोली- हे रानी! तेजवानु को देखने में छोटा होने पर भी छोटा नहीं गिनना चाहिए. कहां घड़े से उत्पन्न होने वाले छोटे-से मुनि अगस्त्य और कहां अपार समुद्र? किंतु उन्होंने उसे सोख लिया, जिसका सुयश सारे संसार में छाया हुआ है. सूर्यमंडल देखने में छोटा लगता है, पर उसके उदय होते ही तीनों लोकों का अंधकार भाग जाता है. जिसके वश में ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सभी देवता हैं, वह मंत्र अत्यंत छोटा होता है. महान मतवाले गजराज को छोटा-सा अंकुश वश में कर लेता है. कामदेव ने फूलों का ही धनुष-बाण लेकर समस्त लोकों को अपने वश में कर रखा है. हे देवी! ऐसा जानकर संदेह त्याग दीजिए. हे रानी! सुनिए, रामचन्द्रजी धनुष को अवश्य ही तोड़ेंगे. सखी के वचन सुनकर रानी को श्रीरामजी के सामर्थ्य के सम्बन्ध में विश्वास हो गया. उनकी उदासी मिट गई और श्रीरामजी के प्रति उनका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया. उस समय श्रीरामचन्द्रजी को देखकर सीताजी भयभीत हृदय से जिस-तिस देवता से विनती कर रही हैं.
वे व्याकुल होकर मन-ही-मन मना रही हैं-हे महेश- भवानी! मुझपर प्रसन्न होइए, मैंने आपकी जो सेवा की है, उसे सुफल कीजिए और मुझपर स्नेह करके धनुष के भारीपन को हर लीजिए. हे गणों के नायक, वर देने वाले देवता गणेशजी! मैंने आज ही के लिए तुम्हारी सेवा की थी. बार-बार मेरी विनती सुनकर धनुष का भारीपन बहुत ही कम कर दीजिए. श्रीरघुनाथजी की ओर देख-देखकर सीताजी धीरज धरकर देवताओं को मना रही हैं. उनके नेत्रों में प्रेम के आंसू भरे हैं और शरीर में रोमांच हो रहा है. अच्छी तरह नेत्र भरकर श्रीरामजी की शोभा देखकर, फिर पिता के प्रण का स्मरण करके सीताजी का मन क्षुब्ध हो उठा. वे मन-ही-मन कहने लगीं- अहो! पिताजी ने बड़ा ही कठिन हठ ठाना है, वे लाभ-हानि कुछ भी नहीं समझ रहे हैं. मंत्री डर रहे हैं, इसलिए कोई उन्हें सीख भी नहीं देता, पंडितों की सभा में यह बड़ा अनुचित हो रहा है. कहां तो वज्र से भी बढ़कर कठोर धनुष और कहां ये कोमल शरीर किशोर श्यामसुंदर! हे विधाता! मैं हृदय में किस तरह धीरज धरूं, सिरस के फूल के कण से कहीं हीरा छेदा जाता है. सारी सभा की बुद्धि भोली (बावली) हो गई है, अतः हे शिवजी के धनुष! अब तो मुझे तुम्हारा ही आसरा है.
तुम अपनी जड़ता लोगों पर डालकर, श्रीरघुनाथजी के सुकुमार शरीर को देखकर उतने ही हल्के हो जाओ. इस प्रकार सीताजी के मन में बड़ा ही सन्ताप हो रहा है. निमेष का एक लव (अंश) भी सौ युगों के समान बीत रहा है. प्रभु श्रीरामचन्द्रजी को देखकर फिर पृथ्वी की ओर देखती हुई सीताजी के चंचल नेत्र इस प्रकार शोभित हो रहे हैं, मानो चन्द्रमण्डल रूपी डोल में कामदेव की दो मछलियां खेल रही हों. सीताजी की वाणी रूपी भ्रमरी को उनके मुखरूपी कमल ने रोक रखा है. लाजरूपी रात्रि को देखकर वह प्रकट नहीं हो रही है. नेत्रों का जल नेत्रों के कोने में ही रह जाता है. जैसे बड़े भारी कंजूस का सोना कोने में ही गड़ा रह जाता है. अपनी बढ़ी हुई व्याकुलता जानकर सीताजी सकुचा गईं और धीरज धरकर हृदय में विश्वास ले आईं कि यदि तन, मन और वचन से मेरा प्रण सच्चा है और श्रीरघुनाथजी के चरणकमलों में मेरा चित्त वास्तव में अनुरक्त है, तो सबके हृदय में निवास करने वाले भगवान मुझे रघुश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी की दासी अवश्य बनाएंगे. जिसका जिसपर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमेंकुछ भी संदेह नहीं है. प्रभु की ओर देखकर सीताजी ने शरीर के द्वारा प्रेम ठान लिया (अर्थात् यह निश्चय कर लिया कि यह शरीर इन्हीं का होकर रहेगा या रहेगा ही नहीं). कृपानिधान श्रीरामजी सब जान गए. उन्होंने सीताजी को देखकर धनुष की ओर कैसे ताका, जैसे गरुड़जी छोटे-से सांप की ओर देखते हैं. इधर जब लक्ष्मणजी ने देखा कि रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्रजी ने शिवजी के धनुष की ओर ताका है, तो वे शरीर से पुलकित हो ब्रह्मांड को चरणों से दबाकर निम्नलिखित वचन बोले.
हे दिग्गजो! हे कच्छप! हे शेष! हे वाराह! धीरज धरकर पृथ्वी को थामे रहो, जिसमें यह हिलने न पावे. श्रीरामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को तोड़ना चाहते हैं. मेरी आज्ञा सुनकर सब सावधान हो जाओ. श्रीरामचन्द्रजी जब धनुष के समीप आए, तब सब स्त्री-पुरुषों ने देवताओं और पुण्यों को मनाया. सबका सन्देह और अज्ञान, नीच राजाओं का अभिमान, परशुरामजी के गर्व की गुरुता, देवता और श्रेष्ठ मुनियों की कातरता (भय), सीताजी की सोच, जनक का पश्चाताप और रानियों के दारुण दुख का दावानल, ये सब शिवजी के धनुषरूपी बड़े जहाज को पाकर, समाज बनाकर उसपर जा चढ़े. ये श्रीरामचन्द्रजी की भुजाओं के बलरूपी अपार समुद्र के पार जाना चाहते हैं, परंतु कोई केवट नहीं है. श्रीरामजी ने सब लोगों की ओर देखा और उन्हें चित्र में लिखे हुए से देखकर फिर कृपाधाम श्रीरामजी ने सीताजी की ओर देखा और उन्हें विशेष व्याकुल जाना. उन्होंने जानकीजी को बहुत ही विकल देखा. उनका एक-एक क्षण कल्प के समान बीत रहा था. यदि प्यासा आदमी पानी के बिना शरीर छोड़ दे, तो उसके मर जाने पर अमृत का तालाब भी क्या करेगा? सारी खेती के सूख जाने पर वर्षा किस काम की? समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ? ऐसा समझकर श्रीरामजी ने जानकीजी की ओर देखा और उनका विशेष प्रेम लखकर वे पुलकित हो गए.
लेत चढ़ावत खैचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें।।
तेहि छन राम मध्य धनुतोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।
मन-ही-मन उन्होंने गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया. जब उसे हाथ में लिया, तब वह धनुष बिजली की तरह चमका और फिर आकाश में मंडल जैसा हो गया. लेते, चढ़ाते और जोर से खींचते हुए किसी ने नहीं लखा (अर्थात ये तीनों काम इतनी फुर्ती से हुए कि धनुष को कब उठाया, कब चढ़ाया और कब खींचा, इसका किसी को पता नहीं लगा). सबने श्रीरामजी को धनुष खींचे खड़े देखा. उसी क्षण श्रीरामजी ने धनुष को बीच से तोड़ डाला. भंयकर कठोर ध्वनि से सब लोक भर गए. घोर, कठोर शब्द से सब लोक भर गए, सूर्य के घोड़े मार्ग छोड़कर चलने लगे. दिग्गज चिंघाड़ने लगे, धरती डोलने लगी, शेष, वाराह और कच्छप कलमला उठे. देवता, राक्षस और मुनि कानों पर हाथ रखकर सब व्याकुल होकर विचारने लगे. जब सबको निश्चय हो गया कि श्रीरामजी ने धनुष को तोड़ डाला, तब सब 'श्रीरामचन्द्रजी की जय' बोलने लगे. शिवजी का धनुष जहाज है और श्रीरामचन्द्रजी की भुजाओं का बल समुद्र है. धनुष टूटने से वह सारा समाज डूब गया, जो मोहवश पहले इस जहाज पर चढ़ा था जिसका वर्णन ऊपर आया है. प्रभु ने धनुष के दोनों टुकड़े पृथ्वी पर डाल दिए. यह देखकर सब लोग सुखी हुए. विश्वामित्र रूपी पवित्र समुद्र में, जिसमें प्रेमरूपी सुंदर अथाह जल भरा है, रामरूपी पूर्णचन्द्र को देखकर पुलकावली रूपी भारी लहरें बढ़ने लगीं. आकाश में बड़े जोर से नगाड़े बजने लगे और देवांगनाएं गान करके नाचने लगीं.
(जारी है… कल पढ़िए धनुष टूटने पर परशुराम किस तरह नाराज हुए)
0 टिप्पणियाँ