राजा ने कहा- हे मुनि! आपके चरणों के दर्शन कर मैं अपना पुण्य प्रभाव कह नहीं सकता. ये सुंदर श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई आनंद को भी आनंद देने वाले हैं. इनकी आपस की प्रीति बड़ी पवित्र और सुहावनी है, वह मन को बहुत भाती है, पर वाणी से कही नहीं जा सकती. जनक जी आनंदित होकर कहते हैं – हे नाथ! सुनिए, ब्रह्म और जीव की तरह इनमें स्वाभाविक प्रेम है. राजा बार-बार प्रभु को देखते हैं. प्रेम से शरीर पुलकित हो रहा है और हृदय में बड़ा उत्साह है. फिर मुनि की प्रशंसा करके और उनके चरणों में सिर नवाकर राजा उन्हें नगर में लिवा चले. एक सुंदर महल जो सभी ऋतुओं में सुखदायक था, वहां राजा ने उन्हें ले जाकर ठहराया. तदंतर सब प्रकार से पूजा और सेवा करके राजा विदा मांगकर अपने घर गए. रघुकुल के शिरोमणि प्रभु श्री रामचन्द्र जी ऋषियों के साथ भोजन और विश्राम करके भाई लक्ष्मण समेत बैठे. उस समय पहरभर दिन रह गया था. लक्ष्मण जी के हृदय में विशेष लालसा है कि जाकर जनकपुर देख आवें. परंतु प्रभु श्री रामचन्द्र जी का डर है और फिर मुनि से भी सकुचाते हैं. इसलिए प्रकट में कुछ नहीं कहते; मन-ही-मन मुस्कुरा रहे हैं. श्री रामचन्द्र जी ने छोटे भाई के मन की दशा जान ली, तब उनके हृदय में भक्तवत्सलता उमड़ आई. वे गुरु की आज्ञा पाकर बहुत ही विनय के साथ सकुचाते हुए मुस्कुराकर बोले- हे नाथ! लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, किंतु प्रभु आप के डर और संकोच के कारण स्पष्ट नहीं कहते. यदि आपकी आज्ञा पाऊं, तो मैं इनको नगर दिखलाकर तुरंत ही ले आऊं. यह सुनकर मुनीश्वर विश्वामित्र जी ने प्रेम सहित वचन कहे- हे राम! तुम नीति की रक्षा कैसे न करोगे; हे तात! तुम धर्म की मर्यादा का पालन करने वाले और प्रेम के वशीभूत होकर सेवकों को सुख देने वाले हो. सुख के निधान दोनों भाई जाकर नगर देख आओ. अपने सुंदर मुख दिखलाकर सब नगर निवासियों के नेत्रों को सफल करो. सब लोकों के नेत्रों को सुख देने वाले दोनों भाई मुनि के चरणकमलों की वंदना करके चले.
बालकों के झुंड इनके सौंदर्य की अत्यन्त शोभा देखकर साथ लग गए. उनके नेत्र और मन इनकी माधुरी पर लुभा गए. दोनों भाइयों के पीले रंग के वस्त्र हैं, कमर के पीले दुपट्टों में तरकस बंधे हैं. हाथों में सुंदर धनुषबाण सुशोभित हैं. श्याम और गौर वर्ण के शरीरों के अनुकूल सुंदर चन्दन की खौर लगी है. सांवरे और गोरे रंग की मनोहर जोड़ी है. सिंह के समान मजबूत गर्दन है; विशाल भुजाएं हैं. चौड़ी छाती पर अत्यन्त सुंदर गजमुक्ता की माला है. सुंदर लाल कमल के समान नेत्र हैं. तीनों तापों से छुड़ाने वाला चन्द्रमा के समान मुख है. कानों में सोने के कर्णफूल अत्यन्त शोभा दे रहे हैं और देखते ही देखने वाले के चित्त को मानो चुरा लेते हैं. उनकी चितवन (दृष्टि) बड़ी मनोहर है और भौंहें तिरछी एवं सुंदर हैं. माथे पर तिलक की रेखाएं ऐसी सुंदर हैं मानो मूर्तिमती शोभा पर मुहर लगा दी गई है. सिरपर सुंदर चौकोनी टोपियां हैं, काले और घुंघराले बाल हैं. दोनों भाई नख से लेकर शिखा तक (एड़ी से चोटी तक) सुंदर हैं और सारी शोभा जहां जैसी चाहिए वैसी ही है. जब पुरवासियों ने यह समाचार पाया कि दोनों राजकुमार नगर देखने के लिए आए हैं, तब वे सब घर-बार और सब काम-काज छोड़कर ऐसे दौड़े मानो दरिद्री खजाना लूटने दौड़ी हो. स्वभाव ही से सुंदर दोनों भाइयों को देखकर वे लोग नेत्रों का फल पाकर सुखी हो रहे हैं. युवती-स्त्रियां घर के झरोखों से लगी हुई प्रेमसहित श्री रामचन्द्र जी के रूप को देख रही हैं. वे आपस में बड़े प्रेम से बातें कर रही हैं- हे सखी! इन्होंने करोड़ों कामदेवों की छवि को जीत लिया है. देवता, मनुष्य, असुर, नाग और मुनियों में ऐसी शोभा तो कहीं सुनने में भी नहीं आती. भगवान विष्णु की चार भुजाएं हैं, ब्रह्माजी के चार मुख हैं, शिवजी का विकट (भयानक) वेष है और उनके पांच मुंह हैं. हे सखी! दूसरा देवता भी कोई ऐसा नहीं है जिसके साथ इस छवि की उपमा दी जाय. इनकी किशोर अवस्था है, ये सुंदरता के घर, सांवले और गोरे रंग के तथा सुख के धाम हैं. इनके अंग-अंग पर करोड़ों-अरबों कामदेवों को निछावर कर देना चाहिए.
सुंदर मुख और सुंदर नेत्रों वाली स्त्रियां समूह-की-समूह हृदय में हर्षित होकर फूल बरसा रही हैं. जहां-जहां दोनों भाई जाते हैं, वहां-वहां परम आनंद छा जाता है. दोनों भाई नगर के पूरब की ओर गए; जहां धनुषयज्ञ के लिए रंग भूमि बनाई गई थी. बहुत लंबा-चौड़ा सुंदर ढाला हुआ पक्का आंगन था, जिस पर सुंदर और निर्मल वेदी सजाई गई थी. चारों ओर सोने के बड़े-बड़े मंच बने थे, जिनपर राजा लोग बैठेंगे. उनके पीछे समीप ही चारों ओर दूसरे मचानों का मंडलाकार घेरा सुशोभित था. वह कुछ ऊंचा था और सब प्रकार से सुंदर था, जहां जाकर नगर के लोग बैठेंगे. उन्हीं के पास विशाल एवं सुंदर सफेद मकान अनेक रंगों के बनाए गए हैं, जहां अपने-अपने कुल के अनुसार सब स्त्रियां यथायोग्य (जिसको जहां बैठना उचित है) बैठकर देखेंगी. नगर के बालक कोमल वचन कह-कहकर आदरपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्र जी को यज्ञशाला कि रचना दिखला रहे हैं. सब बालक इसी बहाने प्रेम के वश होकर श्री राम जी के मनोहर अंगों को छूकर शरीर से पुलकित हो रहे हैं और दोनों भाइयों को देख-देखकर उनके हृदय में अत्यन्त हर्ष हो रहा है. श्री रामचन्द्र जी ने सब बालकों को प्रेम के वश जानकर यज्ञभूमि के स्थानों की प्रेमपूर्वक प्रशंसा की. इससे बालकों का उत्साह, आनंद और प्रेम और भी बढ़ गया, जिससे वे सब अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें बुला लेते हैं और प्रत्येक के बुलाने पर दोनों भाई प्रेमसहित उनके पास चले जाते हैं.
देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई।।
जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू।।
कोमल, मधुर और मनोहर वचन कहकर श्री राम जी अपने छोटे भाई लक्ष्मण को यज्ञभूमि की रचना दिखलाते हैं. जिनकी आज्ञा पाकर माया लव निमेष (पलक गिरने के चौथाई समय) में ब्रह्मांडों के समूह रच डालती है, वही दीनों पर दया करने वाले श्री राम जी भक्ति के कारण धनुष यज्ञशाला को चकित होकर देख रहे हैं. इस प्रकार सब कौतुक (विचित्र रचना) देखकर वे गुरु के पास चले. देर हुई जानकर उनके मन में डर है. जिनके भय से डर को भी डर लगता है, वही प्रभु भजन का प्रभाव जिसके कारण ऐसे महान प्रभु भी भय का नाट्य करते हैं, दिखला रहे हैं. उन्होंने कोमल, मधुर और सुंदर बातें कहकर बालकों को जबर्दस्ती विदा किया. फिर भय, प्रेम, विनय और बड़े संकोच के साथ दोनों भाई गुरु के चरण कमलों में सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे. रात्रि का प्रवेश होते ही मुनि ने आज्ञा दी, तब सबने संध्या वंदन किया. फिर प्राचीन कथाएं तथा इतिहास कहते-कहते सुंदर रात्रि दो पहर बीत गई. तब श्रेष्ठ मुनि ने जाकर शयन किया. दोनों भाई उनके चरण दबाने लगे जिनके चरण कमलों के दर्शन एवं स्पर्श के लिए वैराग्यवान पुरुष भी भांति-भांति के जप और योग करते हैं, वे ही दोनों भाई मानो प्रेम से जीते हुए प्रेमपूर्वक गुरुजी के चरण कमलों को दबा रहे हैं. मुनि ने बार-बार आज्ञा दी, तब श्री रघुनाथ जी ने जाकर शयन किया.
श्री राम जी के चरणों को हृदय से लगाकर भय और प्रेम सहित परम सुख का अनुभव करते हुए लक्ष्मण जी उनको दबा रहे हैं. प्रभु श्री रामचन्द्र जी ने बार-बार कहा- हे तात! अब सो जाओ. तब वे उन चरण कमलों को हृदय में धरकर लेट रहे. रात बीतने पर, मुर्गे का शब्द कानों से सुनकर लक्ष्मण जी उठे. जगत के स्वामी सुजान श्री रामचन्द्र जी भी गुरु से पहले ही जाग गए. वे जाकर नहाये. फिर नित्यकर्म समाप्त करके उन्होंने मुनि को मस्तक नवाया. पूजा का समय जानकर, गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई फूल लेने चले. उन्होंने जाकर राजा का सुंदर बाग देखा, जहां वसन्त ऋतु लुभाकर रह गई है. मन को लुभाने वाले अनेक वृक्ष लगे हैं. रंग-बिरंगी उत्तम लताओं के मंडप छाये हुए हैं. नए पत्तों, फलों और फूलों से युक्त सुंदर वृक्ष अपनी सम्पत्ति से कल्पवृक्ष को भी लजा रहे हैं. पपीहे, कोयल, तोते, चकोर आदि पक्षी मीठी बोली बोल रहे हैं और मोर सुंदर नृत्य कर रहे हैं. बाग के बीचोबीच सुहावना सरोवर सुशोभित है, जिसमें मणियों की सीढ़ियां विचित्र ढंग से बनी हैं. उसका जल निर्मल है, जिसमें अनेक रंगों के कमल खिले हुए हैं, जल के पक्षी कलरव कर रहे हैं और भ्रमर गुंजार कर रहे हैं. बाग और सरोवर को देखकर प्रभु श्री रामचन्द्र जी भाई लक्ष्मण सहित हर्षित हुए. यह बाग वास्तव में परम रमणीय है, जो जगत् को सुख देने वाले श्री रामचन्द्र जी को सुख दे रहा है.
चारों ओर दृष्टि डालकर और मालियों से पूछकर वे प्रसन्न मन से पत्र-पुष्प लेने लगे. उसी समय सीताजी वहां आईं. माता ने उन्हें गिरिजा (पार्वती) जी की पूजा करने के लिए भेजा था. साथ में सब सुंदरी और सयानी सखियां हैं, जो मनोहर वाणी से गीत गा रही हैं. सरोवर के पास गिरिजा जी का मंदिर सुशोभित है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता; देखकर मन मोहित हो जाता है. सखियों सहित सरोवर में स्नान करके सीताजी प्रसन्न मन से गिरिजा जी के मन्दिर में गईं. उन्होंने बड़े प्रेम से पूजा की और अपने योग्य सुंदर वर मांगा. एक सखी सीताजी का साथ छोड़कर फुलवाड़ी देखने चली गई थी. उसने जाकर दोनों भाइयों को देखा और प्रेम में विह्वल होकर वह सीताजी के पास आई. सखियों ने उसकी दशा देखी कि उसका शरीर पुलकित है और नेत्रों में जल भरा है. सब कोमल वाणी से पूछने लगीं कि अपनी प्रसन्नता का कारण बता. उसने कहा- दो राजकुमार बाग देखने आए हैं. किशोर अवस्था के हैं और सब प्रकार से सुंदर हैं. वे सांवले और गोरे रंग के हैं; उनके सौन्दर्य को मैं कैसे बखानकर कहूं. वाणी बिना नेत्र की है और नेत्रों के वाणी नहीं है. यह सुनकर और सीताजी के हृदय में बड़ी उत्कंठा जानकर सब सयानी सखियां प्रसन्न हुईं. तब एक सखी कहने लगी- हे सखी! ये वही राजकुमार हैं जो सुना है कि कल विश्वामित्र मुनि के साथ आए हैं.
सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे।।
नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा।।
और जिन्होंने अपने रूप की मोहिनी डालकर नगर के स्त्री-पुरुषों को अपने वश में कर लिया है. जहां-तहां सब लोग उन्हीं की छवि का वर्णन कर रहे हैं. अवश्य चलकर उन्हें देखना चाहिए, वे देखने के योग्य हैं. उसके वचन सीताजी को अत्यन्त ही प्रिय लगे और दर्शन के लिए उनके नेत्र अकुला उठे. उसी प्यारी सखी को आगे करके सीताजी चलीं. पुरानी प्रीति को कोई लख नहीं पाता. नारदजी के वचनों का स्मरण करके सीताजी के मन में पवित्र प्रीति उत्पन्न हुई. वे चकित होकर सब ओर इस तरह देख रही हैं मानो डरी हुई मृगछौनी इधर-उधर देख रही हो. कंकण (हाथों के कड़े), करधनी और पायजेब के शब्द सुनकर श्री रामचन्द्र जी हृदय में विचारकर लक्ष्मण से कहते हैं- यह ध्वनि ऐसी आ रही है मानो कामदेव ने विश्व को जीतने का संकल्प करके डंके पर चोट मारी है. ऐसा कहकर श्री राम जी ने फिरकर उस ओर देखा . श्री सीताजी के मुख रूपी चन्द्रमा को निहारने के लिए उनके नेत्र चकोर बन गए. सुंदर नेत्र स्थिर हो गए (टकटकी लग गई). मानो निमि (जनकजी के पूर्वज) ने जिनका सबकी पलकों में निवास माना गया है, लड़की- दामाद के मिलन-प्रसंग को देखना उचित नहीं, इस भाव से सकुचाकर पलकें छोड़ दीं. सीताजी की शोभा देखकर श्रीरामजी ने बड़ा सुख पाया. हृदय में वे उसकी सराहना करते हैं, किन्तु मुख से वचन नहीं निकलते. वह शोभा ऐसी अनुपम है मानो ब्रह्मा ने अपनी सारी निपुणता को मूर्तिमान कर संसार को प्रकट करके दिखा दिया हो.
सीताजी की शोभा सुंदरता को भी सुंदर करने वाली है. वह ऐसी मालूम होती है मानो सुंदरता रूपी घर में दीपक की लौ जल रही हो. अबतक सुंदरता रूपी भवन में अंधेरा था, वह भवन मानो सीताजी की सुंदरता रूपी दीपशिखा को पाकर जगमगा उठा है, पहले से भी अधिक सुंदर हो गया है. सारी उपमाओं को तो कवियों ने जूठा कर रखा है. मैं जनकनन्दिनी श्री सीताजी की किससे उपमा दूं. इस प्रकार हृदय में सीताजी की शोभा का वर्णन करके और अपनी दशा को विचारकर प्रभु श्री रामचन्द्र जी पवित्र मन से अपने छोटे भाई लक्ष्मण से समयानुकूल वचन बोले- हे तात! यह वही जनकजी की कन्या है जिसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा है. सखियां इसे गौरीपूजन के लिए ले आई हैं. यह फुलवाड़ी में प्रकाश करती हुई फिर रही है, जिसकी अलौकिक सुंदरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है. वह सब कारण (अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें. किन्तु हे भाई! सुनो, मेरे मंगलदायक दाहिने अंग फड़क रहे हैं. रघुवंशियों का यह सहज जन्मगत स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्ग पर पैर नहीं रखता. मुझे तो अपने मन का अत्यन्त ही विश्वास है कि जिसने स्वप्न में भी परायी स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली है. रण में शत्रु जिनकी पीठ नहीं देख पाते (अर्थात् जो लड़ाई के मैदान से भागते नहीं), परायी स्त्रियां जिनके मन और दृष्टि को नहीं खींच पातीं और भिखारी जिनके यहां से खाली हाथ नहीं लौटते, ऐसे श्रेष्ठ पुरुष संसार में थोड़े हैं. यों श्रीरामजी छोटे भाई से बातें कर रहे हैं, पर मन सीताजी के रूप में लुभाया हुआ उनके मुखरूपी कमल के छवि रूप मकरन्द-रस को भौंरे की तरह पी रहा है.
सीताजी चकित होकर चारों ओर देख रही हैं. मन इस बात की चिंता कर रहा है कि राजकुमार कहां चले गए. बालमृगनयनी (मृग के छौने की-सी आंखवाली) सीताजी जहां दृष्टि डालती हैं, वहां मानो श्वेत कमलों की कतार बरस जाती है. तब सखियों ने लता की ओट में सुंदर श्याम और गौर कुमारों को दिखलाया. उनके रूप को देखकर नेत्र ललचा उठे. वे ऐसे प्रसन्न हुए मानो उन्होंने अपना खजाना पहचान लिया. श्रीरघुनाथजी की छवि देखकर नेत्र थकित (निश्चल) हो गए. पलकों ने भी गिरना छोड़ दिया. अधिक स्नेह के कारण शरीर विह्वल हो गया. मानो शरद्-ऋतु के चन्द्रमा को चकोरी [बेसुध हुई] देख रही हो. नेत्रों के रास्ते श्रीरामजी को हृदय में लाकर चतुर शिरोमणि जानकीजी ने पलकों के किवाड़ लगा दिए (अर्थात् नेत्र मूंदकर उनका ध्यान करने लगीं). जब सखियों ने सीताजी को प्रेम के वश जाना, तब वे मन में सकुचा गईं. कुछ कह नहीं सकती थीं. उसी समय दोनों भाई लतामंडप में से प्रकट हुए. मानो दो निर्मल चन्द्रमा बादलों के पर्दे को हटाकर निकले हों. दोनों सुंदर भाई शोभा की सीमा हैं. उनके शरीर की आभा नीले और पीले कमल की सी है. सिर पर सुंदर मोरपंख सुशोभित हैं. उनके बीच-बीच में फूलों की कलियों के गुच्छे लगे हैं. माथे पर तिलक और पसीने की बूंदें शोभायमान हैं. कानों में सुंदर भूषणों की छवि छायी है. टेढ़ी भौंहें और घुंघराले बाल हैं. नए लाल कमल के समान रतनारे (लाल) नेत्र हैं.
ठोड़ी, नाक और गाल बड़े सुंदर हैं, और हंसी की शोभा मनको मोल लिए लेती है. मुख की छवि तो मुझसे कही ही नहीं जाती, जिसे देखकर बहुत-से कामदेव लजा जाते हैं. वक्ष स्थल पर मणियों की माला है. शंख के सदृश सुंदर गला है. कामदेव के हाथी के बच्चे की सूंड के समान (उतार-चढ़ाव वाली एवं कोमल) भुजाएं हैं, जो बल की सीमा हैं. जिसके बायें हाथ में फूलों सहित दोना है, हे सखि ! वह सांवला कुंअर तो बहुत ही सलोना है. सिंह की-सी (पतली, लचीली) कमर वाले, पीताम्बर धारण किए हुए, शोभा और शील के भण्डार, सूर्यकुल के भूषण श्रीरामचन्द्रजी को देखकर सखियां अपने-आपको भूल गईं. एक चतुर सखी धीरज धरकर, हाथ पकड़कर सीताजी से बोली- गिरिजाजी का ध्यान फिर कर लेना, इस समय राजकुमार को क्यों नहीं देख लेतीं. तब सीताजी ने सकुचाकर नेत्र खोले और रघुकुल के दोनों सिंहों को अपने सामने खड़े देखा. नख से शिखा तक श्रीरामजी की शोभा देखकर और फिर पिता का प्रण याद करके उनका मन बहुत क्षुब्ध हो गया. जब सखियों ने सीताजी को परवश (प्रेम के वश) देखा, तब सब भयभीत होकर कहने लगीं - बड़ी देर हो गई, अब चलना चाहिए. कल इसी समय फिर आएंगी, ऐसा कहकर एक सखी मन में हंसी. सखी की यह रहस्यभरी वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गईं. देर हो गई जान उन्हें माता का भय लगा. बहुत धीरज धरकर वे श्रीरामचन्द्रजी को हृदय में ले आईं, और उनका ध्यान करती हुई अपने को पिता के अधीन जानकर लौट चलीं.
मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने सीताजी बार-बार घूम जाती हैं और श्रीरामजी की छवि देख-देखकर उनका प्रेम कम नहीं बल्कि बढ़ रहा है. शिवजी के धनुष को कठोर जानकर वे मन में विलाप करती हुई हृदय में श्रीरामजी की सांवली मूर्ति को रखकर चलीं. (शिवजी के धनुष की कठोरता का स्मरण आने से उन्हें चिन्ता होती थी कि ये सुकुमार रघुनाथजी उसे कैसे तोड़ेंगे, पिता के प्रण की स्मृति से उनके हृदय में क्षोभ था ही, इसलिए मन में विलाप करने लगीं. प्रेमवश ऐश्वर्य की विस्मृति हो जाने से ही ऐसा हुआ. फिर भगवान् के बल का स्मरण आते ही वे हर्षित हो गईं और सांवली छवि को हृदय में धारण करके चलीं. तब परमप्रेम की कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूप को अपने सुंदर चित्तरूपी भित्ति पर चित्रित कर लिया. सीताजी पुनः भवानीजी के मन्दिर में गईं और उनके चरणों की वन्दना करके हाथ जोड़कर बोलीं- हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो; हे महादेवजी के मुखरूपी चन्द्रमा की ओर टकटकी लगाकर देखने वाली चकोरी! आपकी जय हो; हे हाथी के मुखवाले गणेशजी और छः मुखवाले स्वामिकार्तिकजी की माता! हे जगज्जननी! हे बिजली की-सी कान्तियुक्त शरीरवाली ! आपकी जय हो! आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है. आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते. आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं. विश्व को मोहित करने वाली और स्वतन्त्र रूप से विहार करने वाली हैं. पति को इष्टदेव मानने वाली श्रेष्ठ नारियों में हे माता! आपकी प्रथम गणना है. आपकी अपार महिमा को हजारों सरस्वती और शेषजी भी नहीं कह सकते.
हे भक्तों को मुंह मांगा वर देनेवाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं. हे देवी! आपके चरणकमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं. मेरे मनोरथ को आप भलीभांति जानती हैं; क्योंकि आप सदा सबके हृदयरूपी नगरी में निवास करती हैं. इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया. ऐसा कहकर जानकीजी ने उनके चरण पकड़ लिए. गिरिजाजी सीताजी के विनय और प्रेम के वश में हो गईं. उनके गले की माला खिसक पड़ी और मूर्ति मुसकुराई. सीताजी ने आदरपूर्वक उस प्रसाद माला को सिरपर धारण किया. गौरीजी का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं- हे सीता! हमारी सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मनःकामना पूरी होगी. नारदजी का वचन सदा पवित्र (संशय, भ्रम आदि दोषों से रहित) और सत्य है. वही वर तुमको मिलेगा. जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर सांवला वर (श्रीरामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा. वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है. इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सब सखियां हृदय में हर्षित हुईं. तुलसीदासजी कहते हैं- भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं. गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजीके हृदय को जो हर्ष हुआ वह कहा नहीं जा सकता.
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी।।
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनुराचा।।
हृदय में सीताजी के सौन्दर्य की सराहना करते हुए दोनों भाई गुरुजी के पास गए. श्रीरामचन्द्रजी ने विश्वामित्रजी से सब कुछ कह दिया. क्योंकि उनका सरल स्वभाव है, छल तो उसे छूता भी नहीं है. फूल पाकर मुनि ने पूजा की. फिर दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे मनोरथ सफल हों. यह सुनकर श्रीराम-लक्ष्मण सुखी हुए. श्रेष्ठ विज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी भोजन करके कुछ प्राचीन कथाएं कहने लगे. इतने में दिन बीत गया और गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई सन्ध्या करने चले. पूर्व दिशा में सुंदर चन्द्रमा उदय हुआ. श्रीरामचन्द्रजी ने उसे सीता के मुख के समान देखकर सुख पाया. फिर मन में विचार किया कि यह चन्द्रमा सीताजी के मुख के समान नहीं है. खारे समुद्र में तो इसका जन्म, फिर उसी समुद्र से उत्पन्न होने के कारण विष इसका भाई; दिन में यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज) रहता है, और कलंकी (काले दाग से युक्त) है. बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजी के मुख की बराबरी कैसे पा सकता है? फिर यह घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों को दुख देने वाला है; राहु अपनी सन्धि में पाकर इसे ग्रस लेता है. चकवे को [चकवी के वियोग का] शोक देने वाला और कमल का वैरी ( उसे मुरझा देने वाला) है. हे चन्द्रमा ! तुझमें बहुत से अवगुण हैं. जो सीताजी में नहीं हैं. अतः जानकीजी के मुख की तुझे उपमा देने में बड़ा अनुचित कर्म करने का दोष लगेगा. इस प्रकार चन्द्रमा के बहाने सीताजी के मुख की छवि का वर्णन करके, बड़ी रात हो गई जान, वे गुरुजी के पास चले.
मुनि के चरण कमलों में प्रणाम करके, आज्ञा पाकर उन्होंने विश्राम किया. रात बीतने पर श्रीरघुनाथजी जागे और भाई को देखकर ऐसा कहने लगे- हे तात! देखो, कमल, चक्रवाक और समस्त संसार को सुख देने वाला अरुणोदय हुआ है. लक्ष्मणजी दोनों हाथ जोड़कर प्रभु के प्रभाव को सूचित करने वाली कोमल वाणी बोले- अरुणोदय होने से कुमुदिनी सकुचा गई और तारागणों का प्रकाश फीका पड़ गया, जिस प्रकार आपका आना सुनकर सब राजा बलहीन हो गए हैं. सब राजारूपी तारे उजाला (मन्द प्रकाश ) करते हैं, पर वे धनुषरूपी महान अन्धकार को हटा नहीं सकते. रात्रि का अन्त होने से जैसे कमल, चकवे, भौंरे और नाना प्रकार के पक्षी हर्षित हो रहे हैं. वैसे ही हे प्रभो! आपके सब भक्त धनुष टूटने पर सुखी होंगे. सूर्य उदय हुआ, बिना ही परिश्रम अन्धकार नष्ट हो गया. तारे छिप गए, संसार में तेज का प्रकाश हो गया. हे रघुनाथजी! सूर्य ने अपने उदय के बहाने सब राजाओं को प्रभु (आप) का प्रताप दिखलाया है. आपकी भुजाओं के बल की महिमा को उद्घाटित करने (खोलकर दिखाने) के लिए ही धनुष तोड़ने की यह पद्धति प्रकट हुई है. भाई के वचन सुनकर प्रभु मुस्कुराए. फिर स्वभाव से ही पवित्र श्रीरामजी ने स्नान किया और नित्यकर्म करके वे गुरुजी के पास आए. आकर उन्होंने गुरुजी के सुंदर चरणकमलों में सिर नवाया.
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