(राम आ रहे हैं...जी हां, सदियों के लंबे इंतजार के बाद भव्य राम मंदिर बनकर तैयार है और प्रभु श्रीराम अपनी पूरी भव्यता-दिव्यता के साथ उसमें विराजमान हो रहे हैं. इस पावन अवसर पर Rochak Jaankari अपने पाठकों के लिए लाया है तुलसीदास द्वारा अवधी में लिखी गई राम की कथा का हिंदी रूपांतरण (साभारः गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीरामचरितमानस). इस श्रृंखला 'रामचरित मानस' में आप पढ़ेंगे भगवान राम के जन्म से लेकर लंका पर विजय तक की पूरी कहानी. आज पेश है पहला खंड...)
अवधपुरी में रघुकुल शिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए, जिनका नाम वेदों में विख्यात है. वे धर्म-धुरन्धर, गुणों के भण्डार और ज्ञानी थे. उनके हृदय में शार्ङ्गधनुष धारण करने वाले भगवान की भक्ति थी, और उनकी बुद्धि भी उन्हीं में लगी रहती थी. उनकी कौसल्या आदि प्रिय रानियां सभी पवित्र आचरणवाली थीं. वे बड़ी विनीत और पति के हिसाब से ही चलने वाली थीं. श्रीहरि के चरण कमलों में उनका दृढ़ प्रेम था. एक बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है. राजा तुरंत ही गुरु के घर गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत विनय की. राजा ने अपना सारा दुख-सुख गुरु को सुनाया. गुरु वसिष्ठ जी ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया और कहा कि धीरज धरो, तुम्हारे चार पुत्र होंगे, जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध और भक्तों के भय को हरने वाले होंगे. तब वसिष्ठ जी ने शृङ्गी ऋषि को बुलवाया और उनसे शुभ पुत्र कामेष्टि यज्ञ कराया. मुनि के भक्ति सहित आहुतियां देने पर अग्निदेव हाथ में खीर लिए प्रकट हुए और वे दशरथ से बोले वसिष्ठ ने हृदय में जो कुछ विचारा था, तुम्हारा वह सब काम सिद्ध हो गया. हे राजन! अब तुम जाकर इस खीर को, जिसको जैसा उचित हो, वैसा भाग बनाकर बांट दो. अग्निदेव सारी सभा को समझाकर अन्तर्धान हो गए. राजा परमानन्द में मग्न हो गए, उनके हृदय में हर्ष समाता न था. उसी समय राजा ने अपनी प्यारी पत्नियों को बुलाया. कौसल्या आदि सब रानियां वहां चली आयीं. राजा ने आधा भाग कौसल्या को दिया, और शेष आधे के दो भाग किए. इसमें से एक भाग राजा ने कैकेयी को दिया. शेष जो बच रहा उसके फिर दो भाग हुए और राजा ने उनको कौसल्या और कैकेयी के हाथ पर रखकर अर्थात् उनकी अनुमति लेकर सुमित्रा को दिया. इस प्रकार सब स्त्रियां गर्भवती हुईं. वे हृदय में बहुत हर्षित हुईं. उन्हें बड़ा सुख मिला. जिस दिन से श्रीहरि गर्भ में आए, सब लोकों में सुख और सम्पत्ति छा गई. शोभा, शील और तेज की खान बनी हुईं सब रानियां महल में सुशोभित हुईं. इस प्रकार कुछ समय सुखपूर्वक बीता और वह अवसर आ गया जिसमें प्रभु को प्रकट होना था. योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गए. जड़ और चेतन सब हर्ष से भर गए क्योंकि श्रीराम का जन्म सुख का मूल है. पवित्र चैत्र का महीना था, नवमी तिथि थी. शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित मुहूर्त था. दोपहर का समय था. न बहुत सर्दी थी, न धूप (गरमी) थी. वह पवित्र समय सब लोकों को शांति देने वाला था.
शीतल, मंद और सुगंधित पवन बह रही थी. देवता हर्षित थे और संतों के मन में बड़ा चाव था. वन फूले हुए थे, पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे थे और सारी नदियां अमृत की धारा बहा रही थीं. जब ब्रह्माजी ने भगवान के प्रकट होने का अवसर जाना तब वे और सारे देवता विमान सजा-सजाकर चले. निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया. गन्धर्वों के दल गुणों का गान करने लगे और सुंदर हाथों में सजा-सजाकर पुष्प बरसाने लगे. आकाश में घमाघम नगाड़े बजने लगे. नाग, मुनि और देवता स्तुति करने लगे और बहुत प्रकार से अपने-अपने उपहार भेंट करने लगे. देवताओं के समूह विनती करके अपने-अपने लोक में जा पहुंचे. समस्त लोकों को शान्ति देने वाले, जगदाधार प्रभु प्रकट हुए. दीनों पर दया करने वाले, कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए. मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गईं. नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था. चारों भुजाओं में अपने खास आयुध थे. आभूषण और वनमाला पहने थे. बड़े-बड़े नेत्र थे. इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए.
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हर्षित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ।।
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी।।
दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगीं- हे अनन्त! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूं. वेद और पुराण तुमको माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाणरहित बतलाते हैं. श्रुतियां और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं. वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह हैं. तुम मेरे गर्भ में रहे, इस बात के सुनने पर धीर विवेकी पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती. जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुस्कुराये. वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं. अतः उन्होंने पूर्वजन्म की सुंदर कथा कहकर माता को समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का (वात्सल्य) प्रेम प्राप्त हो और भगवान के प्रति पुत्रभाव हो जाए. माता की बुद्धि इससे बदल गई, तब वह फिर बोली- हे तात! यह रूप छोड़कर अत्यन्त प्रिय बाललीला करो. मेरे लिए यह सुख परम अनुपम होगा. माता का यह वचन सुनकर देवताओं के स्वामी सुजान भगवान ने बालक रूप होकर रोना शुरू कर दिया. बच्चे के रोने की बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियां उतावली होकर दौड़ी चली आईं. दासियां हर्षित होकर जहां-तहां दौड़ीं. सारे पुरवासी आनंद में मग्न हो गए.
राजा दशरथ जी पुत्र का जन्म कानों से सुनकर मानो ब्रह्मानन्द में समा गए. मन में अतिशय प्रेम है, शरीर पुलकित हो गया. आनंद में अधीर हुई बुद्धि को धीरज देकर और प्रेम में शिथिल हुए शरीर को संभालकर वे उठना चाहते हैं. जिनका नाम सुनने से ही कल्याण होता है, वही प्रभु मेरे घर आए हैं, यह सोचकर राजा का मन परम आनंद से पूर्ण हो गया. उन्होंने बाजे वालों को बुलाकर कहा कि बाजा बजाओ. गुरु वसिष्ठजी के पास बुलावा गया. वे ब्राह्मणों को साथ लिए राजद्वार पर आए. उन्होंने जाकर अनुपम बालक को देखा, जो रूप की राशि है और जिसके गुण कहने से समाप्त नहीं होते. फिर राजा ने सब जातकर्म-संस्कार आदि किए और ब्राह्मणों को सोना, गौ, वस्त्र और मणियों का दान दिया. ध्वजा, पताका और तोरणों से नगर छा गया. जिस प्रकार से वह सजाया गया, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता. आकाश से फूलों की वर्षा हो रही है, सब लोग ब्रह्मानन्द में मग्न हैं. स्त्रियां झुंड-की-झुंड मिलकर चलीं. स्वाभाविक श्रृंगार किए ही वे उठ दौड़ीं. सोने का कलश लेकर और थालों में मंगल द्रव्य भरकर गाती हुई राजद्वार में प्रवेश करती हैं. वे आरती करके न्यौछावर करती हैं और बार-बार बच्चे के चरणों पर गिरती हैं. मागध, सूत, वंदीजन और गवैये रघुकुल के स्वामी के पवित्र गुणों का गान करते हैं.
राजा ने हर किसी को भरपूर दान दिया. जिसने पाया उसने भी नहीं रखा और लुटा दिया. नगर की सभी गलियों के बीच-बीच में कस्तूरी, चन्दन और केसर की कीच मच गई. घर-घर मंगलमय बधाई गीत बजने लगे, क्योंकि शोभा के मूल भगवान प्रकट हुए हैं. नगर के स्त्री-पुरुषों के झुंड-के-झुंड जहां-तहां आनंदमग्न हो रहे हैं.
कैकेयी और सुमित्रा ने भी सुंदर पुत्रों को जन्म दिया. उस सुख, सम्पत्ति, समय और समाज का वर्णन सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कर सकते. अवधपुरी इस प्रकार सुशोभित हो रही है, मानो रात्रि प्रभु से मिलने आई हो और सूर्य को देखकर मानो मन में सकुचा गई हो, परंतु फिर भी मन में विचारकर वह मानो सन्ध्या बन कर रह गई हो.
अगर की धूप का बहुत-सा धुआं मानो सन्ध्या का अंधकार है और जो अबीर उड़ रहा है, वह उसकी ललाई है. महलों में जो मणियों के समूह हैं, वे मानो तारागण हैं. राजमहल का जो कलश है, वही मानो श्रेष्ठ चन्द्रमा है. राजभवन में जो अति कोमल वाणी से वेदध्वनि हो रही है, वही मानो समय से (समयानुकूल) सनी हुई पक्षियों की चहचहाहट है. यह कौतुक देखकर सूर्य भी अपनी चाल भूल गए. एक महीना उन्हें वहीं बीत गया यानी महीने भर का दिन हो गया. इस रहस्य को कोई नहीं जानता. सूर्य अपने रथसहित वहीं रुक गए, फिर रात किस तरह होती. सूर्यदेव भगवान श्री राम जी का गुणगान करते हुए चले. यह महोत्सव देखकर देवता, मुनि और नाग अपने भाग्य की सराहना करते हुए अपने-अपने घर चले. उस अवसर पर जो जिस प्रकार आया और जिसके मन को जो अच्छा लगा, राजा ने उसे वही दिया. हाथी, रथ, घोड़े, सोना, गायें, हीरे और भांति-भांति के वस्त्र देकर राजा ने सबके मन को संतुष्ट किया. सब लोग जहां-तहां आशीर्वाद दे रहे थे कि चारों राजकुमार चिरजीवी हों. इस प्रकार कुछ दिन बीत गए. दिन और रात जाते हुए जान नहीं पड़ते. तब नामकरण- संस्कार का समय जानकर राजा ने ज्ञानी मुनि श्री वसिष्ठ जी को बुला भेजा. मुनि की पूजा करके राजा ने कहा- हे मुनि! आपने मन में जो विचार रखे हों, वे नाम रखिये. मुनि ने कहा-हे राजन्! इनके अनेक अनुपम नाम हैं, फिर भी मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहूंगा.
जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी।।
सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा।।
ये जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस आनंद सिंधु के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम 'राम' है, जो सुख का भवन और संपूर्ण लोकों को शांति देने वाला है. जो संसार का भरण-पोषण करते हैं, उन (आपके दूसरे पुत्र) का नाम 'भरत' होगा. जिनके स्मरण मात्र से शत्रु का नाश होता है, उनका वेदों में प्रसिद्ध 'शत्रुघ्न' नाम है और जो शुभ लक्षणों के धाम, श्रीरामजीके प्यारे और सारे जगत के आधार हैं, गुरु वसिष्ठ जी ने उनका 'लक्ष्मण' ऐसा श्रेष्ठ नाम रखा. गुरुजी ने हृदय में विचारकर ये नाम रखे और कहा कि हे राजन्! तुम्हारे चारों पुत्र वेद के तत्त्व (साक्षात भगवान) हैं. जो मुनियों के धन, भक्तों के सर्वस्व और शिवजी के प्राण हैं, उन्होंने [इस समय तुम लोगों के प्रेमवश] बाललीला के रस में सुख माना है. बचपन से ही श्रीरामचन्द्रजी को अपना परम हितैषी स्वामी जानकर लक्ष्मण जी ने उनके चरणों में प्रीति जोड़ ली. भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइयों में स्वामी और सेवक जैसी प्रीति हो गई. श्याम और गौर शरीर वाली दोनों सुंदर जोड़ियों की शोभा देखकर माताएं तृण तोड़ती हैं (ताकि नजर न लगे). यों तो चारों ही पुत्र शील, रूप और गुण के धाम हैं, तो भी सुख के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी सबसे अधिक हैं. उनके हृदय में कृपारूपी चन्द्रमा प्रकाशित है. उनकी मन को हरने वाली हंसी उस (कृपारूपी चन्द्रमा) की किरणों जैसी है. कभी गोद में लेकर और कभी उत्तम पालने में लिटाकर माता 'प्यारे ललना!' कहकर दुलार करती है.
जो सर्वव्यापक, निरंजन (मायारहित ), निर्गुण, विनोदरहित और अजन्मा ब्रह्म हैं, वही प्रेम और भक्ति के वश कौसल्याजी की गोद में हैं. उनके नील कमल और गम्भीर (जल से भरे हुए) मेघ के समान श्याम शरीर में करोड़ों कामदेवों की शोभा है. लाल-लाल चरणकमलों के नखों की (शुभ्र) ज्योति ऐसी मालूम होती है जैसे (लाल) कमल के पत्तों पर मोती स्थिर हो गए हों. चरण तलों में वज्र, ध्वजा और अङ्कुश के चिह्न शोभित हैं. नूपुर (पैंजनी) की ध्वनि सुनकर मुनियों का भी मन मोहित हो जाता है. कमर में करधनी और पेट पर तीन रेखाएं (त्रिवली) हैं. नाभिकी गम्भीरता को तो वही जानते हैं जिन्होंने उसे देखा है. बहुत-से आभूषणों से सुशोभित विशाल भुजाएं हैं. हृदय पर बाघ के नख की बहुत ही निराली छटा है. छाती पर रत्नों से युक्त मणियों के हार की शोभा और ब्राह्मण (भृगु) के चरण चिह्नको देखते ही मन लुभा जाता है. कंठ शंख के समान (उतार-चढ़ाव वाला, तीन रेखाओं से सुशोभित) है और ठोड़ी बहुत ही सुंदर है. मुखपर असंख्य कामदेवों की छटा छा रही है. दो-दो सुंदर दंतुलियां हैं, लाल- लाल ओठ हैं. नासिका और तिलक के सौन्दर्य का तो वर्णन ही कौन कर सकता है. सुंदर कान और बहुत ही सुंदर गाल हैं, मधुर तोतले शब्द बहुत ही प्यारे लगते हैं. जन्मके समय से रखे हुए चिकने और घुंघराले बाल हैं, जिनको माता ने बहुत प्रकार से बनाकर संवार दिया है. शरीर पर पीली झंगुली पहनाई हुई है. उनका घुटनों और हाथों के बल चलना मुझे बहुत ही प्यारा लगता है. उनके रूप का वर्णन वेद और शेषजी भी नहीं कर सकते. उसे वही जानता है जिसने कभी स्वप्न में भी देखा हो
जो सुख के पुंज, मोह से परे तथा ज्ञान, वाणी और इन्द्रियों से अतीत हैं, वे भगवान् दशरथ- कौशल्या के अत्यन्त प्रेम के वश होकर पवित्र बाललीला करते हैं. इस प्रकार सम्पूर्ण जगत के माता-पिता श्रीरामजी अवधपुर के निवासियों को सुख देते हैं. जिन्होंने श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति जोड़ी है, उनकी यह प्रत्यक्ष गति है कि भगवान् उनके प्रेमवश बाललीला करके उन्हें आनंद दे रहे हैं. श्रीरघुनाथजी से विमुख रहकर मनुष्य चाहे करोड़ों उपाय करे, परन्तु उसका संसार बन्धन कौन छुड़ा सकता है. जिसने सब चराचर जीवों को अपने वश में कर रखा है, वह माया भी प्रभु से भय खाती है. भगवान् उस माया को भौंह के इशारे पर नचाते हैं. ऐसे प्रभु को छोड़कर कहो, और किसका भजन किया जाय. मन, वचन और कर्म से चतुराई छोड़कर भजते ही श्री रघुनाथजी कृपा करेंगे. इस प्रकार से प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बालक्रीड़ा की और समस्त नगर निवासियों को सुख दिया. कौशल्या जी कभी उन्हें गोद में लेकर हिलाती-डुलातीं और कभी पालने में लिटाकर झुलाती थीं. प्रेम में मग्न कौशल्या जी रात और दिन का बीतना नहीं जानती थीं. पुत्र के स्नेहवश माता उनके बाल चरित्रों का गान किया करतीं. एक बार माता ने श्रीरामचन्द्रजी को स्नान कराया और शृंगार करके पालने पर पौढ़ा दिया. फिर अपने कुल के इष्टदेव भगवान की पूजा के लिए स्नान किया.
प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।
पूजा करके नैवेद्य चढ़ाया और स्वयं वहां गईं, जहां रसोई बनाई गई थी. फिर माता वहीं (पूजा के स्थान में) लौट आईं, और वहां आने पर पुत्र को इष्टदेव भगवान पर चढ़ाए हुए नैवेद्य का भोजन करते देखा. माता भयभीत होकर (पालने में सोया था, यहां किसने लाकर बैठा दिया, इस बात से डरकर) पुत्र के पास गईं, तो वहां बालक को सोया हुआ देखा. फिर पूजा स्थान में लौटकर देखा कि वही पुत्र वहां भोजन कर रहा है. उनके हृदय में कंप होने लगा और मन को धीरज नहीं होता. वह सोचने लगीं कि यहां और वहां मैंने दो बालक देखे. यह मेरी बुद्धि का भ्रम है या और कोई विशेष कारण है? प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने माता को घबराई हुई देखकर मधुर मुस्कान से हंस दिया. फिर उन्होंने माता को अपना अखंड अद्भुत रूप दिखलाया, जिसके एक-एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड लगे हुए हैं. अगणित सूर्य, चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा, बहुत से पर्वत, नदियां, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव देखे. और वे पदार्थ भी देखे जो कभी सुने भी न थे. सब प्रकार से बलवती माया को देखा कि वह भगवान के सामने अत्यन्त भयभीत हाथ जोड़े खड़ी है. जीव को देखा, जिसे वह माया नचाती है और फिर भक्ति को देखा, जो उस जीव को माया से छुड़ा देती है. माता का शरीर पुलकित हो गया, मुख से वचन नहीं निकलता. तब आंखें मूंदकर उसने श्री रामचन्द्र जी के चरणों में सिर नवाया. माता को आश्चर्यचकित देखकर खरके शत्रु श्री राम जी फिर बालरूप हो गए.
माता से स्तुति भी नहीं की जाती. वह डर गईं कि मैंने जगत पिता परमात्मा को पुत्र करके जाना. श्रीहरि ने माता को बहुत प्रकार से समझाया और कहा- हे माता! सुनो, यह बात कहीं पर कहना नहीं. कौशल्या जी बार-बार हाथ जोड़कर विनय करती हैं कि हे प्रभु ! मुझे आपकी माया अब कभी न व्यापे. भगवान ने बहुत प्रकार से बाल लीलाएं कीं और अपने सेवकों को अत्यन्त आनंद दिया. कुछ समय बीतने पर चारों भाई बड़े होकर कुटुम्बियों को सुख देने वाले हुए. तब गुरुजी ने जाकर चूड़ाकर्म-संस्कार किया. ब्राह्मणों ने फिर बहुत-सी दक्षिणा पाई. चारों सुंदर राजकुमार बड़े ही मनोहर अपार चरित्र करते फिरते हैं. जो मन, वचन और कर्म से अगोचर हैं, वही प्रभु दशरथ जी के आंगन में विचर रहे हैं. भोजन करने के समय जब राजा बुलाते हैं, तब वे अपने बालसखाओं के समाज को छोड़कर नहीं आते. कौशल्या जी जब बुलाने जाती हैं, तब प्रभु ठुमुक-ठुमुक भाग चलते हैं. जिनका वेद 'नेति' (इतना ही नहीं) कहकर निरूपण करते हैं और शिवजी ने जिनका अन्त नहीं पाया, माता उन्हें हठपूर्वक पकड़ने के लिए दौड़ती हैं. वे शरीर में धूल लपेटे हुए आए और राजा ने हंसकर उन्हें गोद में बैठा लिया.
भोजन करते हैं पर चित्त चंचल है. अवसर पाकर मुंह में दही-भात लपटाये किलकारी मारते हुए इधर-उधर भाग चले. श्री रामचन्द्र जी की बहुत ही सरल (भोली) और सुंदर (मनभावनी) बाललीलाओं का सरस्वती, शेषजी, शिवजी और वेदों ने गान किया है. जिनका मन इन लीलाओं में अनुरक्त नहीं हुआ, विधाता ने उन मनुष्यों को वंचित कर दिया (नितान्त भाग्यहीन बनाया). ज्यों ही सब भाई कुमारावस्था के हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया. श्री रघुनाथ जी [भाइयों सहित] गुरु के घर में विद्या पढ़ने गए और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएं आ गईं. चारों वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैं, वे भगवान पढ़ें, यह बड़ा कौतुक (अचरज) है. चारों भाई विद्या, विनय, गुण और शील में बड़े निपुण हैं और सब राजाओं की लीलाओं के ही खेल खेलते हैं. हाथों में बाण और धनुष बहुत ही शोभा देते हैं. रूप देखते ही चराचर (जड़-चेतन) मोहित हो जाते हैं. वे सब भाई जिन गलियों में खेलते हुए निकलते हैं, उन गलियों के सभी स्त्री- पुरुष उनको देखकर स्नेह से शिथिल हो जाते हैं अथवा ठिठककर रह जाते हैं. कोसलपुर के रहने वाले स्त्री, पुरुष, बूढ़े और बालक सभी को कृपालु श्रीरामचन्द्रजी प्राणों से भी बढ़कर प्रिय लगते हैं. श्रीरामचन्द्रजी भाइयों और इष्ट-मित्रों को बुलाकर साथ ले लेते हैं और नित्य वन में जाकर शिकार खेलते हैं. मन में पवित्र समझकर मृगों को मारते हैं और प्रतिदिन लाकर राजा (दशरथजी) को दिखलाते हैं.
जो मृग श्री राम जी के बाण से मारे जाते थे, वे शरीर छोड़कर देवलोक को चले जाते थे. श्री रामचन्द्र जी अपने छोटे भाइयों और सखाओं के साथ भोजन करते हैं और माता-पिता की आज्ञा का पालन करते हैं. जिस प्रकार नगर के लोग सुखी हों, कृपानिधान श्री रामचन्द्र जी वही लीला करते हैं. वे मन लगाकर वेद-पुराण सुनते हैं और फिर स्वयं छोटे भाइयों को समझाकर कहते हैं. श्री रघुनाथ जी प्रातःकाल उठकर माता-पिता और गुरु को मस्तक नवाते हैं और आज्ञा लेकर नगर का काम करते हैं. उनके चरित्र देख-देखकर राजा मन में बड़े हर्षित होते हैं. जो व्यापक,
अकल (निरवयव ), इच्छारहित, अजन्मा और निर्गुण हैं; तथा जिनका न नाम है न रूप, वही भगवान भक्तों के लिए नाना प्रकार के अनुपम (अलौकिक) चरित्र करते हैं.
ज्ञानी महामुनि विश्वामित्र जी वन में शुभ आश्रम (पवित्र स्थान) जानकर बसते थे. जहां वे मुनि जप, यज्ञ और योग करते थे, परन्तु मारीच और सुबाहु से बहुत डरते थे. यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि बहुत दुःख पाते थे. गाधि के पुत्र विश्वामित्र जी के मन में चिन्ता छा गई कि ये पापी राक्षस भगवान के मारे बिना न मरेंगे. तब श्रेष्ठ मुनि ने मन में विचार किया कि प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने के लिए अवतार लिया है.
इसी बहाने जाकर मैं उनके चरणों का दर्शन करूं और विनती करके दोनों भाइयों को ले आऊं. जो ज्ञान, वैराग्य और सब गुणों के धाम हैं, उन प्रभु को मैं नेत्र भरकर देखूंगा. बहुत प्रकार से मनोरथ करते हुए जाने में देर नहीं लगी. सरयू जी के जल में स्नान करके वे राजा के दरवाजे पर पहुंचे. राजा ने जब मुनि का आना सुना, तब वे ब्राह्मणों के समाज को साथ लेकर मिलने गए और दण्डवत करके मुनि का सम्मान करते हुए उन्हें लाकर अपने आसन पर बैठाया. चरणों को धोकर बहुत पूजा की और कहा- मेरे समान धन्य आज दूसरा कोई नहीं है. फिर अनेक प्रकार के भोजन करवाए, जिससे श्रेष्ठ मुनि ने अपने हृदय में बहुत ही हर्ष प्राप्त किया. फिर राजा ने चारों पुत्रों को मुनि के चरणों पर डाल दिया. श्री रामचन्द्र जी को देखकर मुनि अपनी देह की सुधि भूल गए. वे श्री राम जी के मुख की शोभा देखते ही ऐसे मग्न हो गए, मानो चकोर पूर्ण चन्द्रमा को देखकर लुभा गया हो. तब राजा ने मन में हर्षित होकर ये वचन कहे - हे मुनि! इस प्रकार कृपा तो आपने कभी नहीं की. आज किस कारण से आपका शुभागमन हुआ? कहिये, मैं उसे पूरा करने में देर नहीं लगाऊंगा. मुनि ने कहा- हे राजन्! राक्षसों के समूह मुझे बहुत सताते हैं. इसीलिए मैं तुमसे कुछ मांगने आया हूं. छोटे भाई सहित श्री रघुनाथ जी को मुझे दो. राक्षसों के मारे जाने पर मैं सनाथ (सुरक्षित) हो जाऊंगा.
सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं।।
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा ।।
हे राजन! प्रसन्न मन से इनको दो, मोह और अज्ञान को छोड़ दो. हे स्वामी! इससे तुमको धर्म और सुयश की प्राप्ति होगी और इनका परम कल्याण होगा. इस अत्यन्त अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का हृदय कांप उठा और उनके मुख की कान्ति फीकी पड़ गई. उन्होंने कहा- हे ब्राह्मण! मैंने चौथेपन में चार पुत्र पाए हैं, आपने विचारकर बात नहीं कही. हे मुनि! आप पृथ्वी, गौ, धन और खजाना मांग लीजिए, मैं आज बड़े हर्ष के साथ अपना सर्वस्व दे दूंगा. देह और प्राण से अधिक प्यारा कुछ भी नहीं होता, मैं उसे भी एक पल में दे दूंगा. सभी पुत्र मुझे प्राणों के समान प्यारे हैं; उनमें भी हे प्रभो! राम को तो [किसी प्रकार से] देते नहीं बनता. कहां अत्यन्त डरावने और क्रूर राक्षस और कहां परम किशोर अवस्था के बिल्कुल सुकुमार. मेरे सुंदर पुत्र! प्रेम-रस में सनी हुई राजा की वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि विश्वामित्र जी ने हृदय में बड़ा हर्ष माना. तब वसिष्ठ जी ने राजा को बहुत प्रकार से समझाया, जिससे राजा का सन्देह नाश को प्राप्त हुआ. राजा ने बड़े ही आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और हृदय से लगाकर बहुत प्रकार से उन्हें शिक्षा दी. फिर कहा- हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं. हे मुनि! अब आप ही इनके पिता हैं, दूसरा कोई नहीं. राजा ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद देकर पुत्रों को ऋषि के हवाले कर दिया. फिर प्रभु माता के महल में गए और उनके चरणों में सिर नवाकर चले.
पुरुषों में सिंहरूप दोनों भाई (राम-लक्ष्मण) मुनि का भय हरने के लिए प्रसन्न होकर चले. वे कृपा के समुद्र, धीरबुद्धि और सम्पूर्ण विश्व के कारण के भी कारण हैं. भगवान के लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएं हैं, नील कमल और तमाल के वृक्ष की तरह श्याम शरीर है, कमर में पीताम्बर पहने और सुंदर तरकश कसे हुए हैं. दोनों हाथों में सुंदर धनुष और बाण हैं. श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई परम सुंदर हैं. विश्वामित्र जी को महान निधि प्राप्त हो गई. वे सोचने लगे- मैं जान गया कि प्रभु ब्रह्मण्यदेव (ब्राह्मणों के भक्त) हैं. मेरे लिए भगवान ने अपने पिता को भी छोड़ दिया. मार्ग में चले जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखलाया. शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी. श्री राम जी ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको निजपद (अपना दिव्य स्वरूप ) दिया. तब ऋषि विश्वामित्र ने प्रभु को मन में विद्या का भंडार समझते हुए भी [लीला को पूर्ण करने के लिए] ऐसी विद्या दी, जिससे भूख-प्यास न लगे और शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो. सब अस्त्र-शस्त्र समर्पण करके मुनि प्रभु श्री राम जी को अपने आश्रम में ले आए और उन्हें परम हितैषी जानकर भक्तिपूर्वक कन्द, मूल और फल का भोजन कराया. सबेरे श्री रघुनाथ जी ने मुनि से कहा- आप जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिए . यह सुनकर सब मुनि हवन करने लगे. श्री राम जी यज्ञ की रखवाली पर रहे.
चलेजात मुनि दीन्ही देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई।।
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।
यह समाचार सुनकर मुनियों का शत्रु, क्रोधी राक्षस मारीच अपने सहायकों को लेकर दौड़ा. श्री राम जी ने बिना फल वाला बाण उसको मारा, जिससे वह सौ योजन के विस्तार वाले समुद्र के पार जा गिरा. फिर सुबाहु को अग्निबाण मारा. इधर छोटे भाई लक्ष्मण जी ने राक्षसों की सेना का संहार कर डाला. इस प्रकार श्री राम जी ने राक्षसों को मारकर ब्राह्मणों को निर्भय कर दिया. तब सारे देवता और मुनि स्तुति करने लगे. श्री रघुनाथ जी ने वहां कुछ दिन और रहकर ब्राह्मणों पर दया की. भक्ति के कारण ब्राह्मणों ने उन्हें पुराणों की बहुत-सी कथाएं कहीं, यद्यपि प्रभु सब जानते थे. तदनन्तर मुनि ने आदरपूर्वक समझाकर कहा- हे प्रभु! चलकर एक चरित्र देखिये. रघुकुल के स्वामी श्री रामचन्द्र जी धनुषयज्ञ की बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र जी के साथ प्रसन्न होकर चले. मार्ग में एक आश्रम दिखायी पड़ा. वहां पशु-पक्षी, कोई भी जीव-जन्तु नहीं था. पत्थर की एक शिला को देखकर प्रभु ने पूछा, तब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही. गौतम मुनि की स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किए बड़े धीरज से आपके चरणकमलों की धूलि चाहती है. हे रघुवीर! इसपर कृपा कीजिए. श्रीरामजी के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई. भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथ जी को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई. अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई. उसका शरीर पुलकित हो उठा; मुख से वचन कहने में नहीं आते थे. वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनंद के आंसुओं) की धारा बहने लगी.
फिर उसने मन में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और श्री रघुनाथ जी की कृपा से भक्ति प्राप्त की. तब अत्यन्त निर्मल वाणी से उसने स्तुति प्रारम्भ की- हे ज्ञान से जानने योग्य श्री रघुनाथ जी! आपकी जय हो! मैं अपवित्र स्त्री हूं और हे प्रभु! आप जगत को पवित्र करने वाले, भक्तों को सुख देने वाले और रावण के शत्रु हैं. हे कमलनयन! हे संसार (जन्म-मृत्यु) के भय से छुड़ाने वाले! मैं आपकी शरण आई हूं, रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए.
जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी।।
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पति लोक अनंद भरी।।
मुनि ने जो मुझे शाप दिया, सो बहुत ही अच्छा किया. मैं उसे अत्यन्त अनुग्रह मानती हूं कि जिसके कारण मैंने संसार से छुड़ाने वाले श्रीहरि (आप) को नेत्र भरकर देखा. इसी (आपके दर्शन) को शंकरजी सबसे बड़ा लाभ समझते हैं. हे प्रभु! मैं बुद्धि की बड़ी भोली हूं, मेरी एक विनती है. हे नाथ! मैं और कोई वर नहीं मांगती, केवल यही चाहती हूं कि मेरा मनरूपी भौंरा आपके चरणकमल की रज के प्रेमरूपी रस का सदा पान करता रहे. जिन चरणों से परम पवित्र देव नदी गंगा जी प्रकट हुईं, जिन्हें शिवजी ने सिर पर धारण किया और जिन चरणकमलों को ब्रह्मा जी पूजते हैं, कृपालु हरि (आप) ने उन्हीं को मेरे सिर पर रखा. इस प्रकार [स्तुति करती हुई] बार-बार भगवान के चरणों में गिरकर, जो मन को बहुत ही अच्छा लगा, उस वर को पाकर गौतम की स्त्री अहल्या आनंद में भरी हुई पतिलोक को चली गई.
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